ख्वाबोँ का सफ़र - एक आत्मकथा

बलजीत यादव के ख्वाबोँ की दुनिया का सफ़र तब शुरू हुआ जब वो अपनी भैसों को खेतों में चराने ले जाया करता। डंडी लिए हुए भैसों को इधर उधर हांकता बलजीत बोरियत से बचने के लिए धीरे - धीरे ख्वाबों की एक दुनिया बुनने लगा। और घर पर बड़े भाई की चिल्लाहट ने उन ख्वाबों को पर लगा दिए। जब भी वो भाई की डांट सुनता तो, अपने ख़्वाबों के संसार में जा उड़ता जो उसे कभी जंगलों की सैर कराते तो कभी रेगिस्तान की। सोचता था जंगल में भाग जाएगा और वो वही पेड़ों पर सोएगा। बाहरी चमचमाती दुनिया से कटा हुआ बलजीत सोचता कि वो जंगल में फलों के सहारे जी लेगा और पेड़, पशु और पंछियों से दोस्ती कर लेगा।
कक्षा में सबसे पीछे बैठने वाला बलजीत नजर कम होने की वजह से धीरे - धीरे आगे आने लगा और फिर सब बच्चों से आगे बोर्ड के बिलकुल पास बैठने लगा। उसके बावजूद बोर्ड पर अक्षर दिखाई न पड़ने के कारण वो साथी बच्चों की कॉपियां मांगकर घर लाने लगा। एक दिन बलजीत के पापा ने देखा कि वो दूसरे बच्चों की कॉपियां घर लाता है तो इसका कारण पूछ बैठे। और दूसरे ही दिन जनाब को गावं में सबसे कम उम्र में चश्मे लगाने का गौरव प्राप्त हो गया। जिससे गावं वालों को बलजीत के रूप में एक नया हास्य पात्र मिल गया। उसे दिनभर लोगों को जवाब देना पड़ता कि उसको इतनी कम उम्र में चश्मे क्यों लग गए ? उनको कोसते हुए बेचारा सोचता कि इन कम्बख्तों को क्या जवाब दिया जाए और मन मारकर चुप हो जाता।
चश्मों का नंबर दिन - ब - दिन बढ़ते गया। जिससे खेल का मैदान भी बलजीत के लिए मुश्किलें बढ़ाने लगा। लेकिन अब बलजीत के ख्वाबी पुलाव अच्छी तरह पकने लगे थे। वो रोज नयी-नयी कहानियां बनाता और अपनी माँ को सुनाता। दोनों माँ बेटे खूब देर तक खिलखिलाकर हँसते। दसवीं में अच्छे नंबर से पास होने पर समाज ने होशियार घोषित कर दिया। अब एक होशियार लड़का कला और वाणिज्य जैसे विषय कैसे ले सकता था ?
बारहवीं के बाद कॉलेज में एडमिशन के सिलसिले ने बलजीत के लिए एक और दुविधा खड़ी कर दी। इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने से मना करने पर चारों तरफ से तरह तरह के ताने पड़ने लगे। पर आख़िरकार काम आया वो गुस्सैल बड़ा भाई और उसकी मदद से दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में रसायन विज्ञान पढ़ने चला गया और दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला गावं का पहला बंदा बना। कॉलेज की दुनिया बिलकुल अलग थी लेकिन गावं की दुनिया से कहीं ज्यादा मजेदार। यहाँ उस पर ताने मारने वाला कोई नहीं था। भाईसाहब को ज्यों हि आज़ादी की खुली हवा मिली, राजनीतिक से लेकर सामाजिक, हर तरह की गतिविधयों में हाथ आजमाने कूद पड़े। वो खुद चाहे क्लास में न जाता परन्तु शाम में कॉलेज के "न.स.स पढ़ाकू" में आसपास के मोहल्लों से आये बच्चों को जरूर पढ़ाता।
जनाब को दुनियादारी को, और अच्छी तरह जानने का फितूर चढ़ा और पहुंचे बिहार, वो भी कोसी नदी के किनारे, एक सुदूर गावं में। कहते है वहां उसके जीवन को एक नई दिशा मिली और पहुँच गए मुम्बई नगरी के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में श्रम अध्ययन के लिए। सामाजिक विज्ञान के नए माहौल ने बचपन के अनुभव और कॉलेज के ज्ञान को विस्तृत रूप देकर बलजीत को हक़ के लिए संघर्ष करने वालों के साथ खड़ा कर दिया। एक्टिविज्म के सफर में ख्वाब बुनने की शक्ति, नारे लिखने और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने में काम तो आई ही साथ में बलजीत को लेखन प्रतिभा से भी सामना करा गई।
बस फिर क्या था साहब निकल पड़े अपनी प्रतिभा को निखारने और हाथ में जो भी आया पढ़ने लगा और कुछ कहानियां भी लिख डाली। जब साथियों ने दोस्ती के दबाव में आकर तारीफ कर दी तो सीधा अपनी ख्वाबों की दुनिया के सातवें आसमान पर बैठ गया। पढ़ने का और लेखन का खुमार इतना चढ़ा कि नौकरी से इस्तीफा देकर आज एक लाइब्रेरी में बैठे पढता रहता है। सुना है, कभी लेखक बनने का ख्वाब देखता है तो कभी स्क्रिप्ट राइटर बनने का। एक दिन तो ख्वाब देख रहा था कि गुलज़ार साहब उसे अवार्ड दे रहे है। गुलज़ार साहब के सामने क्या डायलाग मारा -" सर आपके चरण स्पर्श हो गए बस यही तमन्ना थी। ऐसा लगता है कि दुनिया की सारी खुशियां सिमटकर मेरे क़दमों में आ गिरी है।"
खबर मिली है कि AIB लेखकों के लिए कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने वाला है। शायद तभी हमारा ख्वाबों का राजा आजकल इतना खुश है। कल ही अपने रूममेट को बोल रहा था कि कमाएगा तो सिर्फ लेखन से। (मनोज बाजपेयी का इंटरव्यू देखा होगा ना इसलिए ) वो देखों गाना भी गुनगुना रहा है तो रामु तो दीवाना फिल्म का (1980)।
" ख्वाबों की दुनिया
सितारों की दुनिया
दूर भी है पर दूर नहीं
उझड़े फ़िज़ा के
चमन से कह दो
रंगीन बहार अब दूर नहीं
ख्वाबों की दुनिया ".....

अरे भई AIB वालों ले जाओ इसे । खुद पागल हो या न हो पर हमें जरूर कर देगा।

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