बुधवार, 5 अगस्त 2015

पारो और चाय - अध्याय २

आज पारो तोड़ा जल्दी आ जाती है जिससे सलीम की चाय और सिगरेट तैयार रहती है। पर पारो आज सिगरेट का पफ जल्दी जल्दी मारते हुए इधर कुछ ज्यादा ही देख रही है। सलीम साहब से ये सब देखकर कहा रुका जाता। ये सब देखकर बैठते हुए तुरंत बोले -
सलीम: क्या बात है? आज महारानी जी का नाक थोड़ा चढ़ा हुआ लगता है। तबियत कुछ ठीक नहीं है?

पारो: यार ये लड़के सब एक से क्यों होते है?

सलीम अपनी तरफ भौचक्की निगाहों से देखता है और कुछ अंतराल के बाद कहता है।

सलीम: क्यों आकाश ने कुछ कह दिया क्या?

पारो: नहीं! समस्या तो यही है। वो कुछ कहता ही तो नहीं। देख, आज मेरा जन्मदिन है और उसने मुझे अभी तक फोन नहीं किया है। कोई किसी का जन्मदिन कैसे भूल सकता है यार।

सलीम: अरे! आज तेरा जन्मदिन है ? हैप्पी बर्थडे यार ! जन्मदिन मुबारक हो। पर कम से कम आज तो छुट्टी ले लेती।

पारो: कहा यार। इतना काम पड़ा है। कौन करता फिर?

सलीम: अच्छा अब ये सब छोड़। ये बता क्या गिफ्ट लेगी अपने जन्मदिन पर ?

पारो: नहीं मुझे कोई गिफ्ट विफ्ट नहीं चाहिए।

सलीम: ऐसे कैसे हो सकता है। बोल तुझे क्या चाहिए ? अच्छा चल ये बता बर्थडे पार्टी के लिए कहा चलना है?

चाय की चुस्की लेते हुए पारो: आज नहीं यार ! फिर कभी चलते है आज रूममेट्स के साथ प्लान बना हुआ है।

सलीम: चल कोई ना। अप्पन फिर कभी चलेंगे।

पारो: हाँ। पक्का।

सिगरेट का पफ आज सलीम के पैरों से थोड़ा जोर से कुचला जाता है। तो वही पारो एएएएएए की आवाज़ निकाले बिना ही अपने ऑफिस की ओर रुख करती है। सलीम कुछ देर अपने ऑफिस की तरफ  चलता है और फिर वापस आकर सिगरेट जलाते हुए अन्ना से एक और चाय की फरमाइश करता है।

सोमवार, 3 अगस्त 2015

पारो और चाय


सिगरेट और चाय अनजान से अनजान इंसानों में भी एक छोटा सा रिश्ता बना देती है और ये रिश्ता चाहे कितना छोटा क्यों ना हो पर जिंदगी से हसीन यादें जोड़ देता है।  सलीम का भी ऐसा ही रिश्ता बना पारो से जब वो नौकरी की वयस्त रसहीन जिंदगी को हल्का बनाने के लिए दोपहर तीन बजे रोजाना अन्ना की टपरी पर आया करता। दोंनो चाय की चुस्की और सिगरेट के कश के साथ अपने बॉस की रोजाना अजीब किस्म की बुराईयाँ गिनाते तो अक्सर अपने निजी रिश्तों को भी चाय के नशे के कारण एक दूसरे के सामने बखेर देते।

                            अध्याय -१

आज पारो अपनी रूममेट का अध्याय चालू करती है।
पारो: यार मेरी रूममेट भी ना रोजाना अपने बॉयफ्रेंड पर गुस्सा करती रहती है। अगर वो एक दिन भी फोन ना करे ना तो बेचारे को अगले दिन सो सो मन (४० किलो) की गालियां खानी पड़ती है।

सलीम: हर किसी लड़के के नसीब में ये ही तो लिखा है। हर लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ यही करती है।

पारो: ओए! मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं करती। मैंने आकाश पर आजतक कोई जबरदस्ती नहीं की। उल्टा वो मुझे फोन कर-कर परेशान करता रहता है।  पता है... उसकी टूथब्रश तक मैं लाती हूँ।  उसको ना..शॉपिंग बिलकुल भी नहीं आती। मगर मैं उसके साथ जबरदस्ती नहीं करती कभी भी। उसके हाँ करने पर ही मैं उसे शॉपिंग ले जाती हूँ। हमारी रिलेशनशिप को आज पूरा डेढ़ साल हो चूका है और आजतक मैंने उससे कुछ नहीं माँगा।

सलीम: बस कर। ज्यादा शेखी ना मार। वैसे.. हर लड़की अपने बारे में यही कहती है।

पारो: हेलो जी। मैं तुझे रोतड़ू लगती हूँ। if you dont believe me then you can call Akash! कितना लक्की है वो। है ना यार!!

सलीम सिगरेट के बट को अपने पैरों से कुचलता है तो वही पारो उत्सुक निगाहों से सलीम को देखती हुई दोनों के चाय के कप को कूड़ेदान में डालती है। सलीम के कुछ ना कहने पर पारो हल्के जिद्दी स्वर में पूछती है - बताओ ना? क्या मैं तुम्हे बाकी लड़कियों जैसी लगती हूँ ?

सलीम ना में गर्दन हिलता है और पारो यईईए की आवाज़ निकालती हुई अपने ऑफिस की तरफ चली जाती है तो सलीम भी हल्की मुस्कराहट के साथ अपनी ऑफिस दी दुनिया में लोट जाता है।

क्या आपकी जिंदगी भी सलीम और पारो के मोड़ से गुजरी है? अपने अनुभव हमारे साथ साझा करे।
धन्यवाद!

सलीम हिंदुस्तानी  

सोमवार, 27 जुलाई 2015

दोस्ती, सपने और एक टूटी फूटी सड़क



दोस्ती, सपने और एक टूटी फूटी सड़क

एक टूटी फूटी सड़क पर दो साइकिलें धीरे धीरे चल रही है। जिनमे एक साईकिल रह रह कर चर -2 की आवाज़ निकालती है। और उन साइकिलों पर बैठे महानुभव लोग एक बेहद ही पेचीदा विषय 'सपने' पर बहस करने लगे जिससे साइकिलों की गति और धीमी पड़ गयी। दोनों दोस्तों ने सपने 'विषय' को अलग अलग अंदाज़ से पेश किया -
सलीम- यार! कुछ बड़ा करने का मन है। बहुत बड़ा! देखना एक दिन तेरा ये दोस्त बड़ा आदमी बनेगा।
आकाश: अरे! बस कर। यहाँ दसवी कैसे पास हो इसका ठिकाना नहीं है और एक ये भाईसाहब है जो बड़े बनेंगे। कल अगर मैं तुझे गणित की परीक्षा में नक़ल नहीं कराता तो जीरो तो पाता ही साथ में उस लकड़भग्गे (मास्टर का प्यारा नाम) से डंडे भी खाने पड़ते।
सलीम: हाहाहा। आकाश तू कमाल का आदमी है यार। गणित की परीक्षा और तू... बस जिंदगी भर चिपके रहना इस गणित से।एक दिन मास्टर जीईईईई तो बन ही जाएगा।
गहरे खड्डे की वजह से सलीम की साईकिल जरा लड़खड़ा गयी। इस पर आकाश की हंसी छूटती है।
आकाश: हाहा। देखो जी बड़ा आदमी। अरे दिन में सपने देखते चलेगा तो यही हाल होगा। देख सलीम! तू मेरा बचपन का दोस्त है इसलिए तुझसे कहता हूँ कि ऐसे सपने ना देखा कर जो पुरे ही ना हो।
सलीम: हाँ बे! तू अपने सपनो की ना, जीवन बीमा पालिसी करा दे। क्योंकि ये ना बस कुछ दिन ही चलने वाली है। अरे देखना यार जब तेरा भाई फोर्टुनर खरीदेगा। एक दम सफ़ेद चमचमाती और काले शीशे वाली।
आकाश: भाई हम गरीब इंसान को भी याद रखना। भूल मत जाना देख अ।
सलीम: अरे तू तो अपना एकदम जिगरी है रे।
आकाश: हम तो यार यही इस गाँव में ही खुश है। बस भगवान की दया से कही छोटी मोटी सरकारी नौकरी मिल जाए, हम तो अपने आप में ही अम्बानी (in high pitch) होंगे।
सलीम: यार तू ना बस छोटा ही सोचना। पागल तू इंटेलीजेंट है, क्लास में तेरा दूसरा नंबर आता है, क्या क्रिकेट खेलता है साले तू। तुझे तो क्रिकटर बनाना चाहिए।
आकाश: तेरे भाई की क्रिकेट में तो देख आस पास के गाँव में धूम है। पर ये क्रिकेट के खेल में ऊपर जाने के लिए यार पैसे चाहिए होते है।
(बात काटते हुए) सलीम : उससे भी ज्यादा हिम्मत। और वो तुझमे है नहीं। देख जब तू स्टेट लेवल पर खेलना चाहेगा तो जिला लेवल पर संघर्ष करना पड़ेगा। ये समझ ले स्टेट लेवल पर सिलेक्शन नहीं हुआ पर इस परिक्रिया का मजा तो ले लेगा।
आकाश: हाँ। और पढाई का क्या? बेटा, एक बार इस खेल के चक्कर में धँस गया तो धोबी का कुत्ता बन जाऊंगा और कही का नहीं रहूँगा।
सलीम: साले तू आदमी है या पजामा? तू पैदा ही क्यों हुआ? अपनी माँ के पेट में ही रहता। कम से कम आज यहाँ साईकिल भी नहीं चलानी पड़ती।
आकाश: साहब जी। हम तो आपको देख कर ही खुश हो लेंगे। तुम ही देखो ये हवाई सपने।
सलीम: देख भाई सपने ना केवल हमें उम्मीद जगाते है। बल्कि साथ ही साथ हमें रोजाना की इस मचमच से छुटकारा भी दिलाते है।
इन सब बातों में ही लगभग तीन किलोमीटर का सफर तय कर चुकी सलीम और आकाश की साइकिल धीमे धीमे लगातार चरमिराती हुई अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी कि इतने में पास ही के स्कूल की 4-5 लड़कियां आपस में हंसती हुई सलीम और आकाश के बगल से गुजरती है। तो सहसा सलीम के मुँह से आवाज़ निकलती है।
सलीम: ओए आकाश! देख तेरी वाली जा रही।
आकाश: कहाँ मेरे वाली भाई ? वो तो आजकल बिलकुल भी घास नहीं डाल रही।(कहकर गर्दन हिलाता है)
सलीम: अच्छा अब समझा! लड़कियां पटने के बाद घास खिलाती है। भाई फिर तो मैं ना पटाने वाला लड़की वडकी।
आकाश: साले, हरामी, तू फ्री के मजे लूट रहा है यहाँ तेरा भाई इसके प्यार में मरा जा रहा है।
सलीम:  हाय मेरे शारुख खान! अरे तो जाकर बोल क्यों नहीं देता?
आकाश: हाँ, इतना आसान है! जब देखो तब वो अपनी इन चिरकुट दोस्तों से घिरी रहती है और घर पे इसकी वो डायन माँ है अगर मुझे उसके आसपास भी देख लिया तो मुझे कच्चा चबा जाएगी और डकार भी नहीं लेगी।
सलीम:  वाह  भाई वाह ! आप तो बहुत ही बड़े न्यायाधीश निकले। अपनी खुद के मोहतरमा तो बेगम और बाकि सब चिरकुट और डायन।
आकाश: हरामखोर तू हर बात का बतंगगढ़ ना बनाया कर। बता रहा हूँ मैं तुझे।

सलीम: वरना? अच्छा! देख भाई ऐसा बिलकुल मत करियो वरना अखबारों में खबर आएगी।(तेज आवाज़ में) ये देखिये किस तरह एक जालिम ने अपने प्यार की खातिर अपने जिगर के टुकड़े, अपने दोस्त का भरे दुपहर में कत्लेआम कर दिया।
आकाश: हाहा, साले कहा से लाता है तू ये सब?
ये सब चल ही रहा था कि  दोनों साईकिल अपने गावों की सीमा में प्रवेश कर गयी जिसके साथ ही सड़क तथा खेतों में जाने पहचाने लोग नजर आने लगे। सलीम और आकाश को बार बार हाथ उठा कर लोगों  को नमस्कार करना पड़ता। जिससे दोनों दोस्तों में अचानक चुप्पी सी छा गयी थी कि इतने में ही सलीम का खेत आ गया। इससे  पहले  कि  सलीम   छुप  छुपाकर   निकलने  की  कोशिश   करता   आकाश   ने  हाथ  उठाकर   सलीम  के  अब्बू  को  आदाब   अर्ज  किया   - नमस्कार   चाचा  जान। बस  फिर  क्या  था  सलीम   को  चाय  के  साथ  फ़ौरन  खेत  में हाज़िर  होने  का  फरमान   जारी  कर  दिया  गया  . इस  फरमान    ने  तो  एक  पल  के  लिए सलीम   के  सब  सपनो   पर  जैसे   JCB चला   दी  हो। और  उसके चेहरे को जैसे सांप सूंघ गया हो। पर  जैसे  ही  साइकिलों    ने  सलीम   का  खेत  पार  किया   सलीम   ने  तुरंत  जोर से आकाश को थप्पड़   मारते   हुए  कहा  - हरामखोर, साले  नमस्कार   करना   जरुरी   था। वाट लगवा   दी  ना। अब  आना   पड़ेगा  खेत  में। मुझसे खेतों   में  काम   कराते  है। क्योंकि जानते नहीं है कि मैं कौन हूँ और क्या बनने वाला हूँ।
आकाश :  हाहाहा। भाई  बड़े  आदमी   अब  खेत  में चाय   लेकर  आ जाना।  नहीं  तो  चचाजान  तुझे  मार  मार  कर  बड़ा  कर  देंगे।
सलीम : कुत्ते , ये तेरी वजह से हुआ है। जिन्दगी में साले दोस्त भी मिले तो तेरे जैसे  कमीने  ही  मिले।
और  ये  सब  बातें  कर ही रहे थे कि सलीम और आकाश का गावं आ गया।सलीम और आकाश की दोस्ती की गाँव के हर घर में धूम थी। कुछ लोग समय पाकर उनकी दोस्ती पर ताना मारना नहीं भूलते। रोजाना दोनों के घर में ज्यादा खाना बनता था कि ना जाने कौन किसके घर खाना खाएगा। चुप्पी तोड़ने के लिए दोनों दोस्त किसी फिल्म पर बात करने लगे। उनकी साईकिल की गति बढ़ गयी। गाँव के कुछ घर पार करते ही तालाब के किनारे खाली पड़े मैदान में कुछ बच्चे वॉलीवाल खेलते नजर आने लगे। साइकिलों के मैदान के पास पहुँचते ही कल्लू दौड़ते हुए आया और सलीम की साईकिल के सामने खड़ा हो गया।
कल्लू : अरे सलीम मियां। कहाँ साईकिल लिए दौड़े जा रहे हो। चलो वॉलीवाल में दो दो हाथ हो जाए।
सलीम : अरे नहीं यार वो अब्बु ने खेत में चाय लेकर बुलाया है। तुम तो जानते हो अगर अब्बा का हुक्म नहीं माना तो रात में घर पर चावलों के साथ मुर्गे की हड्डी के बजाए मेरी बोटी खाई जाएगी।

कल्लू : क्या मियां ? आप खामखां चचाजान को बदनाम कर रहे है। अरे उनके जैसा नेक इंसान तो इस धरती पर एक आधा ही बचा होगा।
सलीम : बस कर। बस कर। बड़ा निकला चचाजान की तारीफ़ करने।  अरे इतना ही प्यार आ रहा है अपने उस चाचा पर तो आजा उसके साझे क्यों नहीं हो जाता ?

कल्लू : नहीं भाई हमें तो अपना घर पर ही ठीक है।

कल्लू की बात खत्म करने से पहले ही मनीष की आवाज़ आती है।

मंजीत (दूर से आवाज़) : ओए सलीमें! क्या हुआ भाई ? दो-दो हाथ हो जाए ?

कल्लू : कह रहा है.. इसके पास वक्त नहीं है।

कल्लू की बात पूरी करने तक मंजीत वहाँ पहुँच जाता है। सलीम के कंधे पर हाथ रखते हुए।

मंजीत :
ओए चल यारा ! एक मैच खेल के चले जाना।10 मिनट लगने है कोई पहाड़ नहीं टूट जाना। और हम कौनसा तुझे पूरी रात पकड़कर रखने वाले है। ओए आकाश आजा यार तू भी आ जा। कभी तो हमारे साथ भी खेल भी खेल लिया कर। 

सलीम : चल आकाश। एक पारी खेल कर चलते है।

आकाश : भाई तू खेल मैं तो चला। खुद भी मरेगा हमें भी मरवाएगा।( चलते हुआ ) और सुन। परसो अंग्रेजी तो टेस्ट है। ध्यान रखियो।

सलीम : ठीक है।  बस एक मैच खेल कर आता हूँ।

सलीम : चल कल्लू तेरा भी दम देख लेते है। आज बेटा मैच में अगर तेरी नाक नहीं रगड़वाई ना तो देखना मेरा नाम भी सलीम नहीं। 

कल्लू : बापू माफ़ कर दे। गलती होगी।  हाहा। साले चल अपनी टीम संभाल।

वॉलीवाल मैच का दृस्य। धुल भरे मैदान में कुछ दस बारह बच्चे खेलते हुए। थोड़ी सी दुरी पर तालाब किनारे लगे हैंडपंप से कुछ लड़कियां पानी भरते हुए। जिनमे एक लड़की हाथ में मटका लिए खेल रहे लड़कों की और टकटकी लगाये देख रही है। दो औरते वही बैठी अपने बर्तन मांज रही है और एक औरत (नए कपडे पहने हुए ) हैंडपंप चला रही है।




और थोड़ी देर बाद उंनका सफर रोजाना की तरह पड़ाव पर आ गया।

कला

कल्पना उस कलाकार की ऐसी
कि दुनिया के दायरे में ना आ सकी।
पढ़ा तो पूरी दुनिया ने उसे
मगर कमबख्त किसी की समझ में ना आ सकी।
खरीददार तो थे बहुत उसके
मगर उसके लायक दाम इकट्ठे ना हो सके।

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

मेरी नई कहानी - शब्दों की दुनिया की श्रंखला से

जिम्मेदारी

शब्दों की भी एक अजीब दुनिया है। ना जाने कितने ही प्रकार के भिन्न-२ स्वरुप लिए हुए शब्द रोजाना हमारी जिंदगी के साथ उठकपठक खेलते है। कुछ पहचाने हुए होते है तो कुछ अक्सर अपरिचित शब्द भी हमसे टकराने में नहीं डरते और जाने अनजाने में हम उन्हें अपना बना लेते है। हाँ ये भी है कि बहुत से शब्दों से लगभग रोजाना मुलाकात होने के बावजूद हम वो घनिष्ठता स्थापित नहीं कर पाते। लेकिन ये शब्द हमारा इस तरह पीछा करते है कि उनका नाम सुनते ही रूह काँपने लगती है। और एक ऐसा ही शब्द है जिम्मेदारी।


ये बचपन से लेकर आज तक साए की तरह पीछे पड़ा हुआ है। जब दिनभर टॉफी की चाहत में माँ के चारों तरफ चक्कर लगाता तो माँ के झल्ला उठने पर दादी बस यही कहती - बच्चा है। मांग लिए तो क्या हुआ ? एक साल बाद स्कूल की जिम्मेदारी से अक्ल आ जाएगी और अपने आप ये बच्चपना हरकते बंद हो जाएगी।


अब जनाब जब स्कूल जाने लगा तो गंदे कपड़ो के साथ-२ मास्टरों और साथी बच्चों के शिकायतों के थेले भी भर - भर कर घर आने लगे। इस पर सभी घर वालों को देर अंधेर चिल्लाने का मौका मिल जाता। बस साथ होती थी तो वो थी दादी। जो सबको शांत कर देती ये कहकर कि दो साल की तो बात है। जब आठवी कक्षा आएगी तो बोर्ड परीक्षा की जिम्मेदारी अपने आप अक्ल ला देगी।


जनाब जब आठवी कक्षा आई तो सचमुच लगने लगा कि जिम्मेदारी आ गयी जिसे देखो वो यही कहता- बेटा …आठवी कक्षा जिंदगी की बड़ी मुश्किल कड़ी है। अगर तुम ये कड़ी अच्छे से सुलझा लोगे तो आगे की जिंदगी की कड़ियाँ अपने आप सरल हो जाएगी। अब भैया सब लोग जब इस तरह पहली बार एक सुर में जिम्मेदारी का जिक्र करने लगे तो सचमुच लगा कि जिम्मेदारी से मुलाकात हो गयी है। और जिम्मेदारी की इस उठापठक ने आख़िरकार माथे पर चिंता की लहर दौड़ा दी। जिसका फल ये हुआ कि मैदानों के रास्ते पथरीले हो गए तो वही दोस्तों की गोष्ठी अक्षर फीकीं जाने लगी और स्वरुप तोह भैया आप.. समझ ही सकते है। अनजाने में आये जिम्मेदारी के इस बोझ ने जीवन रफ़्तार पर थोड़ी लगाम सी लगा दी।


मगर अचानक एक दिन जिम्मेदारी के टल जाने का भ्रम हुआ जब आठवीं की कक्षा के परिणाम आए। घर में मिठाइयों के ढेर लग गए और हद तो तब पार हो गयी जब बिना मांगे (बिना किसी शादी समारोह के ) जींस की एक चमचमाती ड्रेस सफ़ेद स्पोर्ट्स सूज के साथ मिल गयी। और पतंगों की लहरों के साथ जिम्मेदारी की दुनिया गायब सी हो गयी। मैदानों की राहें और दोस्तों की गोष्ठी के साथ - साथ पड़ोस की पारो की मुस्कराहट का भी रुख बदल गया और जिंदगी की हर सीमा पर अपना कब्ज़ा नजर आने लगा।


मगर बदचलन जिम्मेदारी ना जाने कहाँ से राह ढूंढ़ती हुई सही एक साल बाद फिर से जिंदगी में आ टपकी। इस बार स्कूल के सारें मास्टरों ने हाथ में नीम की लकड़ी की बड़ी - बड़ी छड़ें लेकर जिम्मेदारियों का बखान शुरू किया। दादी जो अब साथ ना थी बहुत याद आने लगी। तब पता चला कि दादी जिम्मेदारी जैसी चीज़ों को कितनी आसानी के साथ जिंदगी से जोड़ देती। मगर ये मास्टर जी तो बड़े - बड़े डंडे लेकर जिम्मेदारियां झाड़ने लगे। मैदानों का रास्ता फिर कंकड़ हो गया, गोष्ठी भी ठंडी पड़ गयी, यहाँ तक की पारो का गुलाबी चेहरा भी सुनसान सा नजर आने लगा। हालाँकि फिर एक वर्ष बाद घर में मिठाइयां आई। साईकिल भी मिल गयी, पर पतंगों की लहरे ना जाने क्यों जिंदगी की रफ़्तार ना बड़ा सकी ? और जिम्मदारी का बोझ लगातार बढ़ता चला गया।


ग्रेजुएट हो जाने के कारण गाँव के कुछ गिने चुने शिक्षित लोगों में नाम शामिल हो गया। ग्रेजुएट फर्स्ट क्लास से पास होने पर लगा कि जिंदगी में कुछ बड़ा करेंगे और मन दिल्ली जैसे शहर की उड़ान भरने लगा। मगर इतने में ही छोटे भाई की पढाई तथा बहन की  शादी की जिम्मेदारियों ने चारों और से घेर लिया। मन तो था बहुत दूर जाने का मगर सफर खत्म हुआ डाकियें की नौकरी से। बूढी दीवारों के बीच खादी ड्रेस पहने हुए खतों की दुनिया में गुम हो चूका आज बस जिम्मेदारी को उसकी अलग - अलग मंजिल तक पंहुचा रहा है।



बड़े भाई के नाम.

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

हम दोनों

तुम थोड़ी ठण्ड इधर करो
मैं थोड़ी धुप सरकाता हूँ। 
थोड़ा-२ बाँट लेते है दोंनो। 
तुम थोड़ी गिराओ झूठ की दीवारे
मैं थोड़ी सच्चाई बतलाता हूँ। 
थोड़ा थोड़ा बाँट लेते है दोनों। 
पुरानी यादें रुठने लगी है अब तो
आओ कुछ नई यादें बनाते है। 
समय थोड़ा साथ बिताते है दोनों। - Shakti Hiranyagarbha

सच की सड़क

कहा था गांधीजी ने
सदा सच बोलो
पढ़ाया था बचपन में मास्टर जी ने ये

सत्य कड़वा होता है,
सत्य की सदैव जीत होती है,
किताबो में पढ़ा था हमने। 

इसी कवायद से काफी कम झूट बोला हमने
 फलस्वरूप  कक्षा में कम अंक पाए
घर में कम मिठाई पाई
मैदान में ज्यादा फील्डिंग की
और कॉलेज में तो पूरी दुनिया ही आगे निकल गयी

अतीत से लेकर आज तक
जिद की सच की छोटी सड़क बनाने की हमने
पर वो आये सच का शस्त्र लेकर
और न जाने कब झूट की खाई खोद गए
हमारी सड़क के नीचे
और अचानक एक दिन धस गए हम उसमे
कोशिश की,
 बाहर निकले
और फिर से निकल पड़े थोड़ी सच की सड़क बनाने
फिर कोई आया अपनापन का शस्त्र लेकर
साथ में सच्चाई की दुहाई लिए हुए
और न जाने कब झूठ की खाई खोद गए
हमारी सड़क के नीचे
और अनजाने में हम धँस गए
अपनी ही सड़क के नीचे। 
अभी भी धसे हुए है।  

सोचते है कि क्या होता अगर गांधीजी ने
सच्चाई का कथन ना कहा होता
किताबो ने सच्चाई का जिक्र न किया होता
तब शायद हमने भी सच की सड़क बनाने की जिद न की होती
शायद कोई अपना हमें खाई में न धसा पाता
काश! गांधीजी ने ये कहा न होता।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

किसान

मैं एक किसान हूँ,
और आसमान में धान बो रहा हूँ। 
लोग मुझे कहते है
 अरे पगले आसमान में  भी कभी धान नहीं जमता। 
मैं पूछता हूँ गेगले धोधले
जब जमीन में भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान क्यों नहीं
और अब तो मैं अड़ गया हूँ
कि दोंनो में से एक होकर रहेगा
या तो धरती से भगवान उखड़ेगा
नहीं तो आसमान में धान जमेगा। 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

दीदी

मैंने बचपन से अपनी दीदी को देखा
उसको मालूम था कि दो छोटे भाइयों को कैसे पालना है।
कब किसको लताड़ना है , किसे पुचकारना है।
चोट लगे खेल में तो गेंदे का रस कैसे ढारना है
और पीकर आए हो बाबूजी तो जूते कैसे उतारना है।
मेरी दीदी को मेहमान बढ़ जाने पर चार कप चाय को
छः  बनाने का हुनुर मालूम था।
और लिट्टी बनाते हुए, उसमे
भुट्टे भुनाने का गुर भी उसका बहुत खूब था।
मेरी दीदी क्या खूबसूरत थी
हिमालय जैसे उसकी नाक थी
और रंग उसका सुंदरबन में छनती हुई धुप था
सुबह जब हल्दी का उबटन लगाती थी
तो लगता था कनइल का फूल है
शाम को जब दिया जलाएगी
तो मिस्टी मिलेगी ये मुझे मालूम था।

लेकिन एक दिन मेरी दीदी, दीदी से औरत हो गई
अब उस औरत से बहुत दूर था
जिसका कभी मैं कभी आखो का नूर था।

अब घर में गंदले मोज़े मिलते थे
रुमाल सारे गुम थे,  आलू में नमक तेज था
रोटिया कच्ची थी, कमिजो में बटन नहीं थे
तकिये में कवर नहीं था, गद्दों में खटमल मौजूद थे

जहाँ गयी थी वो औरत वहां बताते है पिताजी
कि उसका बड़ा रसूख था।
मै सोचता था कि कितना कमीना है वो मुच्छड़
जिसने मेरी दीदी को धोखेबाज बना दिया।

खैर ढेड साल बाद मुझे बताया गया कि मेरी एक भगिनी हुई है।
मेरी दीदी को एक लड़की हुई है तो मै उससे मिलने गया
लेकिन वहां दीदी थी ही नहीं
वहां एक औरत थी,
जिसकी आखों के निचे गढ्ढ़े थे
होठ पर पपड़ियाँ थी
और मॉस बस नाम का मौजूद था
उस औरत की दुनिया थी
उसकी सास
जिसको नहाने के लिए गरम पानी चाहिए
ननद जिसको दुपट्टा आसमानी चाहिए
बूढ़े ससुर
जिसको चाय और हुक्का चाहिए
और एक पति जिसको
ऑफिस के लिए दाना पानी चाहिए
ऐसा लगता था की सबको बस
 उसकी जवानी चाहिए। 
वो औरत मुझे कमरे के कोने में ले जाकर खूब रोइ
फूट फूट कर रोइ।

मै वापस आ गया
और दो महीने बाद मेरी दीदी को जला दिया गया।
मेरे मज़बूर पिता ने केस चला दिया
और उस केस का बड़ा फायदा रहा
उससे एक वकील का घर चलता रहा
थानेदार को नोटों का बण्डल मिलता रहा
सिविल सर्जन को मिठाइयों का डोला पहुचता रहा।
और मुझे बताया गया की मेरी दीदी बदचलन थी।
लेकिन वो बदचलन कैसे थी ये मुझे पता नहीं चला
क्योंकि उसे मैंने घर के बहार छोड़ियें घर के अंदर भी चलते नहीं देखा
वो तरकारी काटती थी तो बैठकर
कपडे धोती थी तो बैठकर
पोंछा लगाती थी तो बैठकर
तो उसने चलना कब सीखा और उसका चल चलन कैसे ख़राब हुआ ?


Shakti Hiranyagarbha

सोमवार, 9 जून 2014


One more caste is born out in our society, caste of 'so called' contract people. Today, at every workplace (both at public and private) we have this new force of contract workers. And each day this force is getting bigger and bigger, and engulfing more number of people into its category. Now, there are castes within this new system of caste and these castes arises because of the difference of the background of the people coming to this new caste system. But for now I would like to comment only on the new caste system of contract workers. These 'so called' contract workers caste started taking new shape mainly after 1991 when India adopted policies of liberalization. Labour laws were loosen up after 1991 and government started declining its role in framing labour policies and in these twenty years one anti labour environment has been created. Now in this new working environment contract workers are suffering at the most. There has been decline in the social, physical and mental growth of the contract workers. This whole contract system can also be compared with the slavery system where people have no rights. Same thing is happening with these workers except that in slavery system workers are harassed through one authority but in the current system workers are harassed by different authorities.
This new caste of contract workers suffers not only at the hands of authorities but also at the hands of society. By creating this whole contract system employers have been very successful in dividing the unity of workers. Very smartly they have segregated permanent workers from the contract workers. Whole caste of contract workers is delved into wall of poverty by our government by not providing labour rights. Contract worker of a particular caste has got a lower place in his caste.

सरकारी स्कूल अच्छे है ।

यह गाँव का आँगन है ।  ज्ञान का प्रांगण है ।  यहाँ मेलजोल है ।  लोगों का तालमेल है ।  बिना मोल है फिर भी अनमोल है ।  इधर-उधर भागता बचपन है । ...