शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

हम दोनों

तुम थोड़ी ठण्ड इधर करो
मैं थोड़ी धुप सरकाता हूँ। 
थोड़ा-२ बाँट लेते है दोंनो। 
तुम थोड़ी गिराओ झूठ की दीवारे
मैं थोड़ी सच्चाई बतलाता हूँ। 
थोड़ा थोड़ा बाँट लेते है दोनों। 
पुरानी यादें रुठने लगी है अब तो
आओ कुछ नई यादें बनाते है। 
समय थोड़ा साथ बिताते है दोनों। - Shakti Hiranyagarbha

सच की सड़क

कहा था गांधीजी ने
सदा सच बोलो
पढ़ाया था बचपन में मास्टर जी ने ये

सत्य कड़वा होता है,
सत्य की सदैव जीत होती है,
किताबो में पढ़ा था हमने। 

इसी कवायद से काफी कम झूट बोला हमने
 फलस्वरूप  कक्षा में कम अंक पाए
घर में कम मिठाई पाई
मैदान में ज्यादा फील्डिंग की
और कॉलेज में तो पूरी दुनिया ही आगे निकल गयी

अतीत से लेकर आज तक
जिद की सच की छोटी सड़क बनाने की हमने
पर वो आये सच का शस्त्र लेकर
और न जाने कब झूट की खाई खोद गए
हमारी सड़क के नीचे
और अचानक एक दिन धस गए हम उसमे
कोशिश की,
 बाहर निकले
और फिर से निकल पड़े थोड़ी सच की सड़क बनाने
फिर कोई आया अपनापन का शस्त्र लेकर
साथ में सच्चाई की दुहाई लिए हुए
और न जाने कब झूठ की खाई खोद गए
हमारी सड़क के नीचे
और अनजाने में हम धँस गए
अपनी ही सड़क के नीचे। 
अभी भी धसे हुए है।  

सोचते है कि क्या होता अगर गांधीजी ने
सच्चाई का कथन ना कहा होता
किताबो ने सच्चाई का जिक्र न किया होता
तब शायद हमने भी सच की सड़क बनाने की जिद न की होती
शायद कोई अपना हमें खाई में न धसा पाता
काश! गांधीजी ने ये कहा न होता।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

किसान

मैं एक किसान हूँ,
और आसमान में धान बो रहा हूँ। 
लोग मुझे कहते है
 अरे पगले आसमान में  भी कभी धान नहीं जमता। 
मैं पूछता हूँ गेगले धोधले
जब जमीन में भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान क्यों नहीं
और अब तो मैं अड़ गया हूँ
कि दोंनो में से एक होकर रहेगा
या तो धरती से भगवान उखड़ेगा
नहीं तो आसमान में धान जमेगा। 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

दीदी

मैंने बचपन से अपनी दीदी को देखा
उसको मालूम था कि दो छोटे भाइयों को कैसे पालना है।
कब किसको लताड़ना है , किसे पुचकारना है।
चोट लगे खेल में तो गेंदे का रस कैसे ढारना है
और पीकर आए हो बाबूजी तो जूते कैसे उतारना है।
मेरी दीदी को मेहमान बढ़ जाने पर चार कप चाय को
छः  बनाने का हुनुर मालूम था।
और लिट्टी बनाते हुए, उसमे
भुट्टे भुनाने का गुर भी उसका बहुत खूब था।
मेरी दीदी क्या खूबसूरत थी
हिमालय जैसे उसकी नाक थी
और रंग उसका सुंदरबन में छनती हुई धुप था
सुबह जब हल्दी का उबटन लगाती थी
तो लगता था कनइल का फूल है
शाम को जब दिया जलाएगी
तो मिस्टी मिलेगी ये मुझे मालूम था।

लेकिन एक दिन मेरी दीदी, दीदी से औरत हो गई
अब उस औरत से बहुत दूर था
जिसका कभी मैं कभी आखो का नूर था।

अब घर में गंदले मोज़े मिलते थे
रुमाल सारे गुम थे,  आलू में नमक तेज था
रोटिया कच्ची थी, कमिजो में बटन नहीं थे
तकिये में कवर नहीं था, गद्दों में खटमल मौजूद थे

जहाँ गयी थी वो औरत वहां बताते है पिताजी
कि उसका बड़ा रसूख था।
मै सोचता था कि कितना कमीना है वो मुच्छड़
जिसने मेरी दीदी को धोखेबाज बना दिया।

खैर ढेड साल बाद मुझे बताया गया कि मेरी एक भगिनी हुई है।
मेरी दीदी को एक लड़की हुई है तो मै उससे मिलने गया
लेकिन वहां दीदी थी ही नहीं
वहां एक औरत थी,
जिसकी आखों के निचे गढ्ढ़े थे
होठ पर पपड़ियाँ थी
और मॉस बस नाम का मौजूद था
उस औरत की दुनिया थी
उसकी सास
जिसको नहाने के लिए गरम पानी चाहिए
ननद जिसको दुपट्टा आसमानी चाहिए
बूढ़े ससुर
जिसको चाय और हुक्का चाहिए
और एक पति जिसको
ऑफिस के लिए दाना पानी चाहिए
ऐसा लगता था की सबको बस
 उसकी जवानी चाहिए। 
वो औरत मुझे कमरे के कोने में ले जाकर खूब रोइ
फूट फूट कर रोइ।

मै वापस आ गया
और दो महीने बाद मेरी दीदी को जला दिया गया।
मेरे मज़बूर पिता ने केस चला दिया
और उस केस का बड़ा फायदा रहा
उससे एक वकील का घर चलता रहा
थानेदार को नोटों का बण्डल मिलता रहा
सिविल सर्जन को मिठाइयों का डोला पहुचता रहा।
और मुझे बताया गया की मेरी दीदी बदचलन थी।
लेकिन वो बदचलन कैसे थी ये मुझे पता नहीं चला
क्योंकि उसे मैंने घर के बहार छोड़ियें घर के अंदर भी चलते नहीं देखा
वो तरकारी काटती थी तो बैठकर
कपडे धोती थी तो बैठकर
पोंछा लगाती थी तो बैठकर
तो उसने चलना कब सीखा और उसका चल चलन कैसे ख़राब हुआ ?


Shakti Hiranyagarbha

सरकारी स्कूल अच्छे है ।

यह गाँव का आँगन है ।  ज्ञान का प्रांगण है ।  यहाँ मेलजोल है ।  लोगों का तालमेल है ।  बिना मोल है फिर भी अनमोल है ।  इधर-उधर भागता बचपन है । ...