Short Stories
मोहन का intellectuals की दुनिया में प्रवेश
मोहन लाल
को आज कॉलेज में दाखिल हुए आज पूरा एक महिनाभर हो चूका है। वो घर से पहली
बार इतनी दूर अनजान लोगों के बीच में रह रहा है। अभी तक की जिन्दगी में वह
अपने गावं के अलावा केवल अपनी नानी के गावं और अपनी बुआ जी के कसबे तक ही
सीमित था। परन्तु पिछले एक महीने में अनजान लोगों के बीच में रहकर मोहन को
एक और दुनिया का अनुभव हुआ जो भावनाओं के अलावा भी बहुत सारी चीजों से
सम्बन्ध रखती है। मोहन की शर्मीली प्रवर्ती के कारण ज्यादा लोगों से
गुफ्तगू नहीं हो पाई है। वो अभी अपनी कक्षा के चार पांच सहपाठियों से तथा
हॉस्टल के कुछ साथियों से ही घुल मिल पाया है।
मोहन के लिए कॉलेज का
वातावरण गावं के वातावरण से बिल्कुल विपरीत है। जहाँ उसके गावं में लोग
सुबह- सुबह उठकर खेतों में टेहली मारने जाते है तथा मुहं में नीम की दातुल
चबाये हुए अक्सर लोकल राजनीती में हो रही उठक-पठक की चर्चा में व्यस्त नजर
आतें है। तो वही कॉलेज के बच्चों की शुरुआत सुबह सुबह ब्रश करते हुए अखबार
पढने से होती है। हॉस्टल में बच्चें सुबह वार्तालाप की बजाय बाथरूम के लिए
दौड-धुप मचाये फिरते है। हाँ ये भी है कि हॉस्टल में कुछ बच्चों की सुबह
होती ही नहीं।
गावं में लोग सुबह सुबह चाय की चुस्की लेते हुए मौसम
से लेकर आसपास के गावं की आधी झूठी उडती ख़बरों पर नमक मिर्च लगाना पसंद
करते है। तो ऐसा ही कुछ हाल मोहन के हॉस्टल में अक्सर रात के समय होता है।
रात के भोजन के बाद कुछ बच्चे मोहन के कमरे के सामने चौकड़ी जमा कर बैठ
जातें है जिसमें रोजाना नए नए विषय पर अजीब किस्म की बहस (ज्यादातर मोहन की
समझ से बाहर) सुनाई पड़ती है। इससे मोहन को पढाई करने तथा सोने में तकलीफ
होती है तथा मन ही मन इन सब लोगों को तथा हॉस्टल की जिन्दगी को कोसता रहता
है।
आज भी सभी लोगों ने मोहन के कमरे के बहार चौकड़ी जमानी शुरू कर दी
है। मोहन का एक साथी जबरदस्ती मोहन को चौकड़ी में घसीट लेता है। तथा कल रात
के विषय पर मोहन की राय जानने की जिद्द करने लगता है। उन्हें लगता है की
मोहन गावं से आता है जिससे उसको वहां की जानकारी थोड़ी ज्यादा हो सकती है
हालाँकि यहाँ कोई भी अपने आप में कम ज्ञानी नहीं है। रोहिताश उससे पूछता
है कि तुम्हे क्या लगता है कि गाववाले लोग छुआछुत, जात-पात में इतना
विश्वास क्यों रखते है ? मोहन कुछ सोचे उससे पहले ही आशुतोष बोल पड़ा - अरे
भाई क्योंकि वहाँ के लोग पढ़े लिखे नहीं है। और उसके बाद तीन चार हाँ हाँ की
आवाज़ सुनाई पड़ती है।
मोहन कुछ गहरी सोच में पड़ जाता है तो वही बाकी
लोग चर्चा में तरह तरह के तर्क पेश करते है। नवीन ने कहा - गावं में बड़ी
जाती वाले लोग ज्यादा बलपूर्वक है। इससे उन्हें दलितों पर अपनी ताकत आजमाइश
करने का मौका मिलता है और वो जाती प्रथा को जारी रखना चाहते है। सूरज के
अनुसार गावं वालों को इस विषय पर सही जानकारी नहीं दी जाती और वो आज भी
पुराने ख्यालों में ही जी रहे है। अजी एक महानुभाव के अनुसार तो दलित तथा
पिछड़ी जाती के लोग ही छुआछुत जैसी महामारी के लिए जिम्मेदार है। उसके
अनुसार दान और भीख जैसे छोटे मोट प्रलोभन के कारण ये लोग जाति का बिल्ला
अपने साथ लेकर घूमते रहते है। सभी लोग भारतीय गावों को छुआछुत की तराजू में
तोल ही रहे थे कि प्रेम कमरे के अन्दर से चिल्लाता है। अरे जल्दी आओ -
देखो क्या मस्त पटाका खडी है। और सभी लड़के एक दुसरे के ऊपर लथपथ हुए खिड़की
से लड़की को देखने की कोशिश करते है। एक कहता है - अरे ये तो सिगरेट पी रही
है वो भी दो लडको के साथ खड़े होकर।
रवि- अरे यार ये तो दो-दो के साथ मजे लुट रही है सही माल है यार। एक बार मिल जाए तो जन्नत की सैर करा दूंगा।
मनीष- भाइयों कल अगर इसको सिगरेट पिलाने की बहाने देखना तुम्हारी भाभी ना बनाई तो मेरा नाम बदल देना।
मोहन
लड़की देखकर चौंक जाता है ये तो उसकी क्लासमेट शैली है। ये वही एकमात्र
लड़की है जिसने अभी तक मोहन से बात की है। मोहन ने बाकी लड़कों की तरह तो
शैली को भद्दे शब्दों से नहीं तरासा। पर हाँ शैली को सिगरेट पीता देखकर उसे
थोडा दुख जरुर हुआ। (मोहन ने लड़की को कभी सिगरेट पीते नहीं देखा था शायद
इसीलिए) पर जो भी हो दुसरे दिन मोहन जब क्लास जाता है तो शैली को
देखकर थोडा असहज हो जाता है। शायद कल की घटना ने और हॉस्टल के लड़कों के
बयानों ने शायद कुसंगति की संकाओ के कीड़े पैदा कर दिए है। शैली भी जल्दी
जल्दी में मोहन से बात नहीं कर पाती। पर क्लास ख़त्म होते ही शैली दौड़ते हुए
मोहन के पास आती है।
हाय मोहन ! क्या हुआ तुम्हे? आज थोड़े परेशान लग रहे हो ?
- हाय! नहीं नहीं। ऐसा कुछ नहीं है।
- तो फिर आज सुबह हाय तक नहीं किया ?
- अरे वो तो जल्दी जल्दी में ध्यान ही नहीं रहा।
- अच्छा जी हमारे साथ शेयर नहीं करना। चलो कोई नहीं। जब तुम्हारा मन करे तो हमारे साथ शेयर कर लेना।
- हाँ बिलकुल यार। तेरे साथ शेयर नहीं करूँगा तो किसके साथ करूँगा। आखिर तुम ही तो है जो मुझसे अच्छे से बात करती हो।
- अरे
पगले ऐसा नहीं है। तू ही किसी से बात नहीं करता। क्लास ख़त्म होते ही तुझे
तो बस हॉस्टल भागने की जल्दी रहती है। क्या रखा है हॉस्टल में ऐसा ?
- हाहा.. समझ नही आता क्लास के बाद क्या करू इसीलिए हॉस्टल चला जाता हूँ। तुम बताओ क्या चल रहा है आजकल?
- बस एकदम बढ़िया। .... चल कैंटीन में कुछ खाने चलते है।
- हाँ ठीक है चल। ये बता ये पकाऊ टीचर्स को तुम झेलती कैसे हो?
- यार
ये तो झेलना ही पड़ेगा। मैं तो ये लोग जो कुछ भी बोर्ड पर लिखते है बस वो
ही लिखती रहती हूँ। इन नोट्स से एग्जाम में काफी हेल्प मिल जाती है। तू भी
लिख लिया कर कुछ क्लास में। ये अपने पढाये हुए में से ही question पेपर
बनाते है।
- हाँ ! वो तो है। पर यार लिखा ही नहीं जाता। इतना बोरिंग
होता है। और इस मैडम की शोर्ट फॉर्म्स तो माशा अल्लाह है ...(थोड़ी चुप्पी के
बाद)
- अच्छा ये बता तू सिगरेट पीती है ?
- हाँ पीती हूँ। तुझे कैसे पता? किसने बताया तुझे ?
- अरे नहीं ! किसी ने बताया नहीं। वो कल शाम को जब तुम हॉस्टल के पीछे सिगरेट पी रही थी तब देखा था।
- अच्छा ! तो तुम्हारा रूम उधर है।
- हाँ, जहाँ तुम खडी थी ठीक उसके सामने।
- लेकिन तुम इतनी हरानी से क्यों पूछ रहे हो ?
रवि मोहन के बगल से गुजरता है . मोहन क्लास ख़त्म हो गयी? भाई कभी हमारे साथ भी टहल लिया करो। ये कहता हुआ रवि वहां से निकल लेता है।
- ये तुम्हारा दोस्त था ?
- नहीं , हॉस्टल में रहता है। बस थोड़ी जान पहचान है।
- कैसे कैसे लोग है ये। तू तो नहीं करता ना ये किसी के साथ?
- नहीं नहीं। बिल्कुल नहीं। मैं तो ऐसे लड़कों से ज्यादा बात भी नहीं करता .
- हम्म्म्म। ठीक है। अच्छा तूने बताया नहीं तू सिगरेट के बारे में इतनी हरानी से क्यों पूछ रहा था।
- नहीं वो तो ऐसे ही पूछ रहा था। actual में शैली सिगरेट हेल्थ के लिए अच्छी नहीं होती।
- ओह
वाह ! लड़के सिगरेट पिए , लड़की छेड़े , शराब पीये सब करे . उनको कहने वाला
कोई नहीं है। पर लड़कियों को जिसे देखों वो नसीहत देने चले आते है।
- यार
, तुम तो खामख्वाह गुस्सा हो रही हो। मेरा तो बस ये कहना है कि सिगरेट
दारु किसी के लिए भी अच्छा नहीं है। फिर चाहे लड़का हो या लड़की।
- क्यों
अच्छी क्यों नहीं है ? मैं अपने पैसे की पीती हूँ किसी के बाप के पैसे से
तो खरीदकर पी नहीं रही और ये मेरी अपना शरीर है। इसमें तुम कौन होते हो
मुझे नसीहत देने वाले ?
- ठीक है बाबा आगे से नहीं कहूँगा।
- बात कहने या नहीं कहने की नहीं है। बात ऐसी सोच रखने की है।
- क्या तुमने कभी किसी लड़के दोस्त को सिगरेट पीने से रोका ?
- हाँ
बिल्कुल रोका और इतना ही नहीं मैंने अपने पुरे वार्ड में सिगरेट पीने वालो
को आने से मना कर रखा है। देखो तुम ये gender issue को गलत तरीके से उठा
रही हो। इसको अच्छे मुद्दे के लिए उपयोग करना चाहिए ना की सिगरेट जैसे
घटिया आदतों को छुपाने के लिए। सोचो अगर कोई रूडिवादी बाप अगर तुम्हे
सिगरेट पीता देख लेता है तो घर जाकर क्या कहेगा - कॉलेज में तो लड़कियां
सिगरेट पीती है। मैं नहीं चाहता मेरी बेटी भी उनके जैसी बने। बस उसको मिल
गया बहाना अपनी बेटी को ना पढ़ाने का।
- मोहन, चीज़ें इतनी आसान नहीं
है। वो बाप तो कोई ना कोई बहाना निकाल ही लेगा जिसे अपनी बेटी को पढ़ाना
नहीं है। सिगरेट नहीं तो कपडे और बॉयफ्रेंड जैसे मुद्दे के सहारे रोक लेगा
अपनी बेटी को। ये सोच ही तो ब्राह्मणवादी सोच है। ये बता लड़के तो खूब
सिगरेट पीतें है फिर भी उन्हें क्यों नहीं रोका जाता कॉलेज जाने के लिए?
केवल लड़कियों को ही क्यों रोका जाता है ?
- देखो , समाज में प्रभुता
किसकी है ? मर्दों की। अब जब उनकी प्रभुता है तो वो अपनी ठोंस तो निकालेंगे
ही ना। इस सोच के खिलाफ हमें लड़ना है और ये सिगरेट जैसे मुद्दे हमें असली
मुद्दों से भटका देते है।
- अरे बाप रे ! तुम्हे तो फिलोसोफेर होना
चाहिए था। यहाँ इंजीनियरिंग में क्या कर रहे हो ? पर बेटा कुछ भी हो मैं
तेरी बातों में नहीं आने वाली। पहले लडको की सिगरेट बंद करा फिर मैं अपनी
सिगरेट बंद करुँगी।
- भैया ना तो मैं तुम्हारी सिगरेट बंद करा सकता और नाही लडको की। मैं तो बस तुझे दोस्त के नाते सलाह दे रहा था .
- रख अपनी सलाह को अपने पास और ये बता क्या लेगा ?
- मेरी लिए एक ब्रेड ओम्लेट ले ले।
- कुर्सी
पर बैठते हुए - अच्छा सिगरेट के लिए तुम लोग इतना लड़ने के लिए उतारू रहते
हो। ये बताओ कॉलेज में सिर्फ बॉयज हॉस्टल है। फिर तुमने हॉस्टल के लिए कभी
आन्दोलन क्यों नहीं किया ?
- ओ भैया आन्दोलनकारी। खाना खाने देगा। मुझे कुछ नहीं लेना देना इन आंदोलनों से। मुझे तो बस इंजीनियरिंग ख़त्म करनी है बस।
- ये ही तो दिक्कत है इस देश के साथ। सब अपने अपने बारे में सोचते है।
- मेरे बाप सुबह से प्रैक्टिकल करते करते जान चली गयी है। माफ़ कर दे मुझे। तेरे हॉस्टल के पीछे कभी सिगरेट नहीं पीउंगी। अब तो खुश ?
- हाहाहा ..अरे सॉरी ..तू खा ले. चल मैं हॉस्टल चलता हूँ।
सुनीति से कुल्टा तक का सफर
मेरे खुद के चाचा के लड़के ने मुझसे कॉलेज के बाद मिलने के लिए कहा। जब
मैंने पुछा क्या बात है तो उसने कहा कि मिलकर बाद में बताऊंगा। जब मैं
कॉलेज के बाद उससे मिलने गयी तो वो मुझे सिनेमा दिखाने की बातें करने लगा।
कहने लगा सनी देओल की नयी फिल्म आई है। मुझे भी कहाँ होंश था , सोचा अगर
इतना कह रहा है तो एक फिल्म जाने में क्या हर्ज है आखिर अपने चाचा का ही तो
लड़का है। फिल्म जाने लगे तो कॉलेज से निकलते वक़्त उसके कुछ दोस्तों ने
तरह-तरह की आवाज़ें निकली। शायद वो आवाजें मुझे सावधान करने के लिए थी। मगर
मैं भी वक़्त की मारी कुछ नहीं समझी और फिल्म के लिए चली गई। हमने अच्छे से
पूरी फिल्म देखी और घर वापस आ गए।
अगले कुछ दिन तक सब कुछ नार्मल
रहा। हाँ उसके हमारे घर के चक्कर कुछ ज्यादा ही बढ़ गए थे। वो मेरी माँ के
कामों में चाहत से ज्यादा ही मदद करने लगा था। लेकिन मुझे इसके पीछे उसके
मंसूबे मालूम नहीं थे। एक दिन जब मैं खेत में गयी तो पता नहीं वो कहाँ से
वहां पर आ टपका। उसने मुझसे कहा कि मुझे बहुत प्यार करता है और वो मेरे
बिना नहीं रह सकता। मैंने उसे समझाया कि पागल मत बन , हम भाई बहन है। इसके
अलावा हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर उसपर तो पता नहीं कोण सा भूत सवार
था। उसने कहा - जब ये सब नाटक करना था तो मेरे साथ फिल्म देखने क्यों आई ?
और ये सब कहकर वो मेरे पास आने लगा। बहुत समझाने पर भी जब वो नहीं माना तो
मैंने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया। वो बिना बोले चुपचाप वहां से निकल गया। मुझे
बहुत डर लग रहा था पर लगा कि अब बला टल गयी है और मैं घर वापस आ गयी।
मैंने
घर आकर सब कुछ अपनी माँ को बतला दिया। माँ ने कहा कि मैंने कोई गलती नहीं
की है और माँ ने सीधे उसके घर जाकर उसकी माँ को सारी बातें बताई। उस वक़्त
मेरी माँ के सामने तो उसने कहा कि वो अपने बेटे को समझा देगी और अपने बेटे
को गालियाँ देने लगी। माँ घर वापस आ गयी।
पर दुसरे दिन ये बात पुरे
गावं में फ़ैल चुकी थी कि मैंने लड़के के साथ जबरदस्ती कुछ करने की कोशिश की
थी। जिस रास्तें से भी हम जाते वहां खड़े लोग हमारा भद्दी भद्दी गालियों से
स्वागत करते। सभी गावं वाले मेरे करैक्टर का सर्टिफिकेशन करने में लगे हुए
थे। माँ बाप का घर से निकलना बंद हो चूका था। तब मुझे समझ में आया कि काश
मैं कॉलेज की उन लडको की आवाज़ों का मतलब समझ लेती तो कम से कम ये दिन तो
नहीं देखने पड़ते।
खैर कुछ दिन बाद हमारे हमदर्द हमारे घर आने लगे तरह
तरह के रिश्ते लेकर। जो बाप अपनी बेटी को पढ़ाने के सपने देखता था वही बाप
आज उसे कॉलेज भेजने पर पछता रहा था। मेरे पास कहने को कुछ नहीं था और अगर
था भी तो कोई सुनने वाला नहीं था। भाई होता तो शायद समझ लेता मगर वो अभी
केवल १० साल का था और मैं अकेली घर में कैद हो चुकी थी। मेरा काम बस चाय
बनाकर लड़कों वालो को पिलाना था और सरमाते हुए मुहं लटकाकर उन्हें नमस्कार
करना था।
झाड़ू लगाते हुए सुनीति ये सब बडबडा रही थी।
अपनी ढेढ़ साल की बेटी के सामने, जो चुपचाप टकटकी लगाये अपनी माँ को देख
रही थी और बीच बीच में दोनों हाथों को उठाकर य.य की आवाज़ निकल देती थी।
शायद वो अपनी सहमति जाता रही थी।
एक मिनट कुछ ख्वाबों में खोई हुई सुनीति वापस अपना इतिहास दोहराना चालू कर देती है।
एक मिनट कुछ ख्वाबों में खोई हुई सुनीति वापस अपना इतिहास दोहराना चालू कर देती है।
और
फिर तेरे बाप का रिश्ता आया मेरे लिए , ये जो तेरी ताई है ना, ये ही लायी
थी ये रिश्ता मेरे लिए। तेरा ताऊ कहने लगा कि उन्हें कोई दहेज नहीं चाहिए।
उन्हें तो सिर्फ लड़की चाहिए और थोड़े से बारातियों के लिए हल्का-फुल्का खाने
का इंतजाम। तेरा बाप कुछ कमाता नहीं था। मेरी माँ मेरी शादी किसी सरकारी
अफसर से शादी कराना चाह रही थी। पर सरकारी नौकरी लगते ही यहाँ के लोग बड़ा
बड़ा ख्वाब देखने लग जाते है जैसे पता नहीं पूरा आसमान ही लूट ले। मेरे बाप
बेचारे के पास इतने पैसे कहा से आते ? और तेरी ताई ने तो हमारे घर ही
चूल्हा डाल लिया था। वो दिन रात तेरे चाचा की बड़ाई करती रहती, कहने लगी सास
भी नहीं है , बस वो ही है। घर में दो महिला ही रहेगी। बड़ा भाई नौकरी है ,
छोटे वाला खेती संभाल लेगा। और आख़िरकार मेरे थके हारे माँ बाप ने मेरी शादी
तेरे बाप से करवा ही दी।
पल्लू से अपना मुहं पूछते हुए -
वैसे
तेरा बाप बड़ा सीधा आदमी था। पर क्या करता , बेचारे की किस्मत में कुछ और
ही लिखा था ? शुरुआत में तो वो मेरा बड़ा ख्याल रखता ? मुझे जैसे ही घर की
याद सताती वो तुरंत कुछ ना कुछ करके मेरा मन बहला देता। पर मुझे कहा मालूम
था कि मेरे नसीब में इतनी ही ख़ुशी लिखी है। शादी के कुछ महीनो बाद मुझे पता
चला कि उसे टीबी है। उसे लगा की मुझे बुरा लगेगा इसलिए मुझे पहले नहीं
बताया। टीबी उसे शादी से पहले ही था पर दवाई खाने से वो ठीक हो गया था।
कहते है दो साल वो बिलकुल ठीक रहा और इसी बीच में हमारी शादी करा दी। जैसे
ही मुझे पता चला कि उसे टीबी है मैं तुम्हारी तेरी ताई पर आग बबूला हो गयी
कि उन्होंने मेरी शादी एक टीबी मरीज से क्यों कराई। वो कहने लगी - 'गावं के
लोग ताना मारते थे , तेरे जेठ पर कि माँ बाप नहीं है इसलिए छोटे भाई का
रिश्ता नहीं करा रहा। जमीन खाएगा भाई को रंडवा रखकर ये सब ताने भी दिए जाते
और फिर हमें क्या मालूम था कि वो ठीक नहीं होगा। हमें लगा कि साल दो साल
में ठीक हो ही जाएगा।'
मेरी आँखों के सामने जैसा अँधेरा सा छा गया
था। कुछ दिन तो मैंने खाना भी नहीं खाया। पर फिर क्या करती उन्हें छोड़ भी
नहीं सकती थी। धीरे धीरे उनकी सेवा करने लगी पर पता नहीं उसने बिलकुल
उम्मीद ही छोड़ दी थी। मैं आज तक उससे इस बात पर गुस्सा हूँ। आखिर क्या कमी
रह गयी थी मेरी खातिरदारी में जो उसने इतनी जल्दी हार मान ली थी। बैगर
जवाब दिए ही ऊपर चला गया। क्या करू नसीब है अपना अपना। अब पूरी जिन्दगी ऐसे
ही गुजारनी पड़ेगी।
पानी पीयेगी ? ये ले मैं लाती हूँ। मटके से पानी लेने की आवाज़ के बाद चप्पलो की आवाज़ ...अ.. ले ..पी ले
पर
इतने सब से तेरी माँ की मुसीबतें टलने वाली नहीं थी। तेरे बाप के मरने के
एक महीने बाद ही हमारे घर के आस-पास से लोग निगाहें उठाकर चलने लगे कि कब
मेरे दर्शन हो। अकेली औरत को तो ये मर्द लोग बाजारू समझ लेते है। कमबख्त वो
कल का लौंडा भी वक़्त देखकर घर में घुसने लगा।
एक दिन मैं अकेली चारा
काट रही थी, वो घर में आ गया लाइट पूछने के बहाने। जब उसने देखा कि मैं
अकेली चारा काट रही हूँ तो कहने लगा कि लो भाभी मैं आपकी मदद करता हूँ, आप
मुझे बुला लिया कीजिये घर की ही तो बात है। और फिर क्या था बस चालू हो गया
उसका रोजाना मेरे घर आना जाना कभी किसी बहाने , कभी किसी बहाने। मैं भी
वक़्त की मारी थी। सोचा कोई तो है जो इस अकेली औरत की मदद करता है। मगर
भगवान् से हम औरतों का सुख कहाँ देखा जाता। पता नहीं उस हरामी के बीज ने
क्या खबर फलाई गावं में या गावं वालों ने अपने आप ही कहानियां घड ली। पर
मैं पुरे गावं का बलि का बकरा बन गयी थी। सभी लोग मुझमें खोट निकाल रहे थे।
मर्द लोग मुझे देखकर अपनी धोती ऊपर उठाने लगते। जैसे सब लोग एक साथ अपनी
हवस मुझ पर उतरने को आतुर है। तेरी ताई ने भी मुझसे लड़ाई कर ली। वो औरत जो
मुझे अपनी छोटी बहन कहती थी पता नहीं क्या क्या कहने लगी। उसने यहाँ तक कह
दिया कि मैंने ही उसके देवर को यानी कि तेरे बाप को मारा है। जैसे मेरा तो
वो कुछ लगता ही नहीं था। आज दुनिया ने मुझे ही उसका दुश्मन बना दिया।
पड़ोसन ने छाछ देने से भी मन कर दिया। एक तरह से पुरे गावं ने मुझे कुलटा
करार दे दिया।
गावं की औरते जिनके मर्द दिनभर पराई औरतों की फ़िराक
में रहते है और वो खुद ना जाने कहाँ कहाँ जाती है बस मुझे ही कोसने लगी।
अच्छा है चलो मेरे बहाने सबकी भड़ास तो निकल गयी। चलो किसी नौजवान लड़की के
साथ तो ये नहीं हुआ। शायद इसी के साथ बाकी लड़कियों को नसीहत मिल गयी और वो
सब मेरी तरह कुलटा होने से बच गयी।
तुझे मैं खूब पढ़ाऊंगी। पढ़कर खूब बड़ी अफसर बनाना , इस दलदल में तू मत रहियों। और मुझे भी अपने साथ ले जाना कही दूर शहर।
ले आजा तुझे दूध पिलाती हूँ। भूख लग गयी होगी।
शब्दों
की भी एक अजीब दुनिया है। ना जाने कितने ही प्रकार के भिन्न-२ स्वरुप लिए
हुए शब्द रोजाना हमारी जिंदगी के साथ उठकपठक खेलते है। कुछ पहचाने हुए होते
है तो कुछ अक्सर अपरिचित शब्द भी हमसे टकराने में नहीं डरते और जाने
अनजाने में हम उन्हें अपना बना लेते है। हाँ ये भी है कि बहुत से शब्दों से
लगभग रोजाना मुलाकात होने के बावजूद हम वो घनिष्ठता स्थापित नहीं कर पाते।
लेकिन ये शब्द हमारा इस तरह पीछा करते है कि उनका नाम सुनते ही रूह काँपने
लगती है। और एक ऐसा ही शब्द है जिम्मेदारी।
ये बचपन से लेकर आज तक साए की तरह पीछे पड़ा हुआ है। जब दिनभर टॉफी की चाहत में माँ के चारों तरफ चक्कर लगाता तो माँ के झल्ला उठने पर दादी बस यही कहती - बच्चा है। मांग लिए तो क्या हुआ ? एक साल बाद स्कूल की जिम्मेदारी से अक्ल आ जाएगी और अपने आप ये बच्चपना हरकते बंद हो जाएगी।
अब जनाब जब स्कूल जाने लगा तो गंदे कपड़ो के साथ-२ मास्टरों और साथी बच्चों के शिकायतों के थेले भी भर - भर कर घर आने लगे। इस पर सभी घर वालों को देर अंधेर चिल्लाने का मौका मिल जाता। बस साथ होती थी तो वो थी दादी। जो सबको शांत कर देती ये कहकर कि दो साल की तो बात है। जब आठवी कक्षा आएगी तो बोर्ड परीक्षा की जिम्मेदारी अपने आप अक्ल ला देगी।
जनाब जब आठवी कक्षा आई तो सचमुच लगने लगा कि जिम्मेदारी आ गयी जिसे देखो वो यही कहता- बेटा …आठवी कक्षा जिंदगी की बड़ी मुश्किल कड़ी है। अगर तुम ये कड़ी अच्छे से सुलझा लोगे तो आगे की जिंदगी की कड़ियाँ अपने आप सरल हो जाएगी। अब भैया सब लोग जब इस तरह पहली बार एक सुर में जिम्मेदारी का जिक्र करने लगे तो सचमुच लगा कि जिम्मेदारी से मुलाकात हो गयी है। और जिम्मेदारी की इस उठापठक ने आख़िरकार माथे पर चिंता की लहर दौड़ा दी। जिसका फल ये हुआ कि मैदानों के रास्ते पथरीले हो गए तो वही दोस्तों की गोष्ठी अक्षर फीकीं जाने लगी और स्वरुप तोह भैया आप.. समझ ही सकते है। अनजाने में आये जिम्मेदारी के इस बोझ ने जीवन रफ़्तार पर थोड़ी लगाम सी लगा दी।
मगर अचानक एक दिन जिम्मेदारी के टल जाने का भ्रम हुआ जब आठवीं की कक्षा के परिणाम आए। घर में मिठाइयों के ढेर लग गए और हद तो तब पार हो गयी जब बिना मांगे (बिना किसी शादी समारोह के ) जींस की एक चमचमाती ड्रेस सफ़ेद स्पोर्ट्स सूज के साथ मिल गयी। और पतंगों की लहरों के साथ जिम्मेदारी की दुनिया गायब सी हो गयी। मैदानों की राहें और दोस्तों की गोष्ठी के साथ - साथ पड़ोस की पारो की मुस्कराहट का भी रुख बदल गया और जिंदगी की हर सीमा पर अपना कब्ज़ा नजर आने लगा।
मगर बदचलन जिम्मेदारी ना जाने कहाँ से राह ढूंढ़ती हुई सही एक साल बाद फिर से जिंदगी में आ टपकी। इस बार स्कूल के सारें मास्टरों ने हाथ में नीम की लकड़ी की बड़ी - बड़ी छड़ें लेकर जिम्मेदारियों का बखान शुरू किया। दादी जो अब साथ ना थी बहुत याद आने लगी। तब पता चला कि दादी जिम्मेदारी जैसी चीज़ों को कितनी आसानी के साथ जिंदगी से जोड़ देती। मगर ये मास्टर जी तो बड़े - बड़े डंडे लेकर जिम्मेदारियां झाड़ने लगे। मैदानों का रास्ता फिर कंकड़ हो गया, गोष्ठी भी ठंडी पड़ गयी, यहाँ तक की पारो का गुलाबी चेहरा भी सुनसान सा नजर आने लगा। हालाँकि फिर एक वर्ष बाद घर में मिठाइयां आई। साईकिल भी मिल गयी, पर पतंगों की लहरे ना जाने क्यों जिंदगी की रफ़्तार ना बड़ा सकी ? और जिम्मदारी का बोझ लगातार बढ़ता चला गया।
ग्रेजुएट हो जाने के कारण गाँव के कुछ गिने चुने शिक्षित लोगों में नाम शामिल हो गया। ग्रेजुएट फर्स्ट क्लास से पास होने पर लगा कि जिंदगी में कुछ बड़ा करेंगे और मन दिल्ली जैसे शहर की उड़ान भरने लगा। मगर इतने में ही छोटे भाई की पढाई तथा बहन की शादी की जिम्मेदारियों ने चारों और से घेर लिया। मन तो था बहुत दूर जाने का मगर सफर खत्म हुआ डाकियें की नौकरी से। बूढी दीवारों के बीच खादी ड्रेस पहने हुए खतों की दुनिया में गुम हो चूका आज बस जिम्मेदारी को उसकी अलग - अलग मंजिल तक पंहुचा रहा है।
बड़े भाई के नाम.
ये बचपन से लेकर आज तक साए की तरह पीछे पड़ा हुआ है। जब दिनभर टॉफी की चाहत में माँ के चारों तरफ चक्कर लगाता तो माँ के झल्ला उठने पर दादी बस यही कहती - बच्चा है। मांग लिए तो क्या हुआ ? एक साल बाद स्कूल की जिम्मेदारी से अक्ल आ जाएगी और अपने आप ये बच्चपना हरकते बंद हो जाएगी।
अब जनाब जब स्कूल जाने लगा तो गंदे कपड़ो के साथ-२ मास्टरों और साथी बच्चों के शिकायतों के थेले भी भर - भर कर घर आने लगे। इस पर सभी घर वालों को देर अंधेर चिल्लाने का मौका मिल जाता। बस साथ होती थी तो वो थी दादी। जो सबको शांत कर देती ये कहकर कि दो साल की तो बात है। जब आठवी कक्षा आएगी तो बोर्ड परीक्षा की जिम्मेदारी अपने आप अक्ल ला देगी।
जनाब जब आठवी कक्षा आई तो सचमुच लगने लगा कि जिम्मेदारी आ गयी जिसे देखो वो यही कहता- बेटा …आठवी कक्षा जिंदगी की बड़ी मुश्किल कड़ी है। अगर तुम ये कड़ी अच्छे से सुलझा लोगे तो आगे की जिंदगी की कड़ियाँ अपने आप सरल हो जाएगी। अब भैया सब लोग जब इस तरह पहली बार एक सुर में जिम्मेदारी का जिक्र करने लगे तो सचमुच लगा कि जिम्मेदारी से मुलाकात हो गयी है। और जिम्मेदारी की इस उठापठक ने आख़िरकार माथे पर चिंता की लहर दौड़ा दी। जिसका फल ये हुआ कि मैदानों के रास्ते पथरीले हो गए तो वही दोस्तों की गोष्ठी अक्षर फीकीं जाने लगी और स्वरुप तोह भैया आप.. समझ ही सकते है। अनजाने में आये जिम्मेदारी के इस बोझ ने जीवन रफ़्तार पर थोड़ी लगाम सी लगा दी।
मगर अचानक एक दिन जिम्मेदारी के टल जाने का भ्रम हुआ जब आठवीं की कक्षा के परिणाम आए। घर में मिठाइयों के ढेर लग गए और हद तो तब पार हो गयी जब बिना मांगे (बिना किसी शादी समारोह के ) जींस की एक चमचमाती ड्रेस सफ़ेद स्पोर्ट्स सूज के साथ मिल गयी। और पतंगों की लहरों के साथ जिम्मेदारी की दुनिया गायब सी हो गयी। मैदानों की राहें और दोस्तों की गोष्ठी के साथ - साथ पड़ोस की पारो की मुस्कराहट का भी रुख बदल गया और जिंदगी की हर सीमा पर अपना कब्ज़ा नजर आने लगा।
मगर बदचलन जिम्मेदारी ना जाने कहाँ से राह ढूंढ़ती हुई सही एक साल बाद फिर से जिंदगी में आ टपकी। इस बार स्कूल के सारें मास्टरों ने हाथ में नीम की लकड़ी की बड़ी - बड़ी छड़ें लेकर जिम्मेदारियों का बखान शुरू किया। दादी जो अब साथ ना थी बहुत याद आने लगी। तब पता चला कि दादी जिम्मेदारी जैसी चीज़ों को कितनी आसानी के साथ जिंदगी से जोड़ देती। मगर ये मास्टर जी तो बड़े - बड़े डंडे लेकर जिम्मेदारियां झाड़ने लगे। मैदानों का रास्ता फिर कंकड़ हो गया, गोष्ठी भी ठंडी पड़ गयी, यहाँ तक की पारो का गुलाबी चेहरा भी सुनसान सा नजर आने लगा। हालाँकि फिर एक वर्ष बाद घर में मिठाइयां आई। साईकिल भी मिल गयी, पर पतंगों की लहरे ना जाने क्यों जिंदगी की रफ़्तार ना बड़ा सकी ? और जिम्मदारी का बोझ लगातार बढ़ता चला गया।
ग्रेजुएट हो जाने के कारण गाँव के कुछ गिने चुने शिक्षित लोगों में नाम शामिल हो गया। ग्रेजुएट फर्स्ट क्लास से पास होने पर लगा कि जिंदगी में कुछ बड़ा करेंगे और मन दिल्ली जैसे शहर की उड़ान भरने लगा। मगर इतने में ही छोटे भाई की पढाई तथा बहन की शादी की जिम्मेदारियों ने चारों और से घेर लिया। मन तो था बहुत दूर जाने का मगर सफर खत्म हुआ डाकियें की नौकरी से। बूढी दीवारों के बीच खादी ड्रेस पहने हुए खतों की दुनिया में गुम हो चूका आज बस जिम्मेदारी को उसकी अलग - अलग मंजिल तक पंहुचा रहा है।
बड़े भाई के नाम.
एक
टूटी फूटी सड़क पर दो साइकिलें धीरे धीरे चल रही है। जिनमे एक साईकिल रह
रह कर चर -2 की आवाज़ निकालती है। और उन साइकिलों पर बैठे महानुभव लोग एक
बेहद ही पेचीदा विषय 'सपने' पर बहस करने लगे जिससे साइकिलों की गति और धीमी
पड़ गयी। दोनों दोस्तों ने सपने 'विषय' को अलग अलग अंदाज़ से पेश किया -
सलीम- यार! कुछ बड़ा करने का मन है। बहुत बड़ा! देखना एक दिन तेरा ये दोस्त बड़ा आदमी बनेगा।
आकाश:
अरे! बस कर। यहाँ दसवी कैसे पास हो इसका ठिकाना नहीं है और एक ये भाईसाहब
है जो बड़े बनेंगे। कल अगर मैं तुझे गणित की परीक्षा में नक़ल नहीं कराता
तो जीरो तो पाता ही साथ में उस लकड़भग्गे (मास्टर का प्यारा नाम) से डंडे
भी खाने पड़ते।
सलीम:
हाहाहा। आकाश तू कमाल का आदमी है यार। गणित की परीक्षा और तू... बस जिंदगी
भर चिपके रहना इस गणित से।एक दिन मास्टर जीईईईई तो बन ही जाएगा।
गहरे खड्डे की वजह से सलीम की साईकिल जरा लड़खड़ा गयी। इस पर आकाश की हंसी छूटती है।
आकाश:
हाहा। देखो जी बड़ा आदमी। अरे दिन में सपने देखते चलेगा तो यही हाल होगा।
देख सलीम! तू मेरा बचपन का दोस्त है इसलिए तुझसे कहता हूँ कि ऐसे सपने ना
देखा कर जो पुरे ही ना हो।
सलीम:
हाँ बे! तू अपने सपनो की ना, जीवन बीमा पालिसी करा दे। क्योंकि ये ना बस
कुछ दिन ही चलने वाली है। अरे देखना यार जब तेरा भाई फोर्टुनर खरीदेगा। एक
दम सफ़ेद चमचमाती और काले शीशे वाली।
आकाश: भाई हम गरीब इंसान को भी याद रखना। भूल मत जाना देख अ।
सलीम: अरे तू तो अपना एकदम जिगरी है रे।
आकाश:
हम तो यार यही इस गाँव में ही खुश है। बस भगवान की दया से कही छोटी मोटी
सरकारी नौकरी मिल जाए, हम तो अपने आप में ही अम्बानी (in high pitch)
होंगे।
सलीम:
यार तू ना बस छोटा ही सोचना। पागल तू इंटेलीजेंट है, क्लास में तेरा दूसरा
नंबर आता है, क्या क्रिकेट खेलता है साले तू। तुझे तो क्रिकटर बनाना
चाहिए।
आकाश: तेरे भाई की क्रिकेट में तो देख आस पास के गाँव में धूम है। पर ये क्रिकेट के खेल में ऊपर जाने के लिए यार पैसे चाहिए होते है।
(बात
काटते हुए) सलीम : उससे भी ज्यादा हिम्मत। और वो तुझमे है नहीं। देख जब तू
स्टेट लेवल पर खेलना चाहेगा तो जिला लेवल पर संघर्ष करना पड़ेगा। ये समझ
ले स्टेट लेवल पर सिलेक्शन नहीं हुआ पर इस परिक्रिया का मजा तो ले लेगा।
आकाश: हाँ। और पढाई का क्या? बेटा, एक बार इस खेल के चक्कर में धँस गया तो धोबी का कुत्ता बन जाऊंगा और कही का नहीं रहूँगा।
सलीम: साले तू आदमी है या पजामा? तू पैदा ही क्यों हुआ? अपनी माँ के पेट में ही रहता। कम से कम आज यहाँ साईकिल भी नहीं चलानी पड़ती।
आकाश: साहब जी। हम तो आपको देख कर ही खुश हो लेंगे। तुम ही देखो ये हवाई सपने।
सलीम: देख भाई सपने ना केवल हमें उम्मीद जगाते है। बल्कि साथ ही साथ हमें रोजाना की इस मचमच से छुटकारा भी दिलाते है।
इन
सब बातों में ही लगभग तीन किलोमीटर का सफर तय कर चुकी सलीम और आकाश की
साइकिल धीमे धीमे लगातार चरमिराती हुई अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी कि इतने
में पास ही के स्कूल की 4-5 लड़कियां आपस में हंसती हुई सलीम और आकाश के
बगल से गुजरती है। तो सहसा सलीम के मुँह से आवाज़ निकलती है।
सलीम: ओए आकाश! देख तेरी वाली जा रही।
आकाश: कहाँ मेरे वाली भाई ? वो तो आजकल बिलकुल भी घास नहीं डाल रही।(कहकर गर्दन हिलाता है)
सलीम: अच्छा अब समझा! लड़कियां पटने के बाद घास खिलाती है। भाई फिर तो मैं ना पटाने वाला लड़की वडकी।
आकाश: साले, हरामी, तू फ्री के मजे लूट रहा है यहाँ तेरा भाई इसके प्यार में मरा जा रहा है।
सलीम: हाय मेरे शारुख खान! अरे तो जाकर बोल क्यों नहीं देता?
आकाश:
हाँ, इतना आसान है! जब देखो तब वो अपनी इन चिरकुट दोस्तों से घिरी रहती है
और घर पे इसकी वो डायन माँ है अगर मुझे उसके आसपास भी देख लिया तो मुझे
कच्चा चबा जाएगी और डकार भी नहीं लेगी।
सलीम: वाह भाई वाह ! आप तो बहुत ही बड़े न्यायाधीश निकले। अपनी खुद के मोहतरमा तो बेगम और बाकि सब चिरकुट और डायन।
आकाश: हरामखोर तू हर बात का बतंगगढ़ ना बनाया कर। बता रहा हूँ मैं तुझे।
सलीम:
वरना? अच्छा! देख भाई ऐसा बिलकुल मत करियो वरना अखबारों में खबर आएगी।(तेज
आवाज़ में) ये देखिये किस तरह एक जालिम ने अपने प्यार की खातिर अपने जिगर
के टुकड़े, अपने दोस्त का भरे दुपहर में कत्लेआम कर दिया।
आकाश: हाहा, साले कहा से लाता है तू ये सब?
ये
सब चल ही रहा था कि दोनों साईकिल अपने गावों की सीमा में प्रवेश कर गयी
जिसके साथ ही सड़क तथा खेतों में जाने पहचाने लोग नजर आने लगे। सलीम और
आकाश को बार बार हाथ उठा कर लोगों को नमस्कार करना पड़ता। जिससे दोनों
दोस्तों में अचानक चुप्पी सी छा गयी थी कि इतने में ही सलीम का खेत आ गया।
इससे पहले कि सलीम छुप छुपाकर निकलने की कोशिश करता आकाश
ने हाथ उठाकर सलीम के अब्बू को आदाब अर्ज किया - नमस्कार
चाचा जान। बस फिर क्या था सलीम को चाय के साथ फ़ौरन खेत में
हाज़िर होने का फरमान जारी कर दिया गया . इस फरमान ने
तो एक पल के लिए सलीम के सब सपनो पर जैसे JCB चला दी हो।
और उसके चेहरे को जैसे सांप सूंघ गया हो। पर जैसे ही साइकिलों ने
सलीम का खेत पार किया सलीम ने तुरंत जोर से आकाश को थप्पड़
मारते हुए कहा - हरामखोर, साले नमस्कार करना जरुरी था। वाट
लगवा दी ना। अब आना पड़ेगा खेत में। मुझसे खेतों में काम कराते
है। क्योंकि जानते नहीं है कि मैं कौन हूँ और क्या बनने वाला हूँ।
आकाश : हाहाहा। भाई बड़े आदमी अब खेत में चाय लेकर आ जाना। नहीं तो चचाजान तुझे मार मार कर बड़ा कर देंगे।
सलीम : कुत्ते , ये तेरी वजह से हुआ है। जिन्दगी में साले दोस्त भी मिले तो तेरे जैसे कमीने ही मिले।
और
ये सब बातें कर ही रहे थे कि सलीम और आकाश का गावं आ गया।सलीम और आकाश
की दोस्ती की गाँव के हर घर में धूम थी। कुछ लोग समय पाकर उनकी दोस्ती पर
ताना मारना नहीं भूलते। रोजाना दोनों के घर में ज्यादा खाना बनता था कि ना
जाने कौन किसके घर खाना खाएगा। चुप्पी तोड़ने के लिए दोनों दोस्त किसी
फिल्म पर बात करने लगे। उनकी साईकिल की गति बढ़ गयी। गाँव के कुछ घर पार
करते ही तालाब के किनारे खाली पड़े मैदान में कुछ बच्चे वॉलीवाल खेलते नजर
आने लगे। साइकिलों के मैदान के पास पहुँचते ही कल्लू दौड़ते हुए आया और सलीम
की साईकिल के सामने खड़ा हो गया।
कल्लू : अरे सलीम मियां। कहाँ साईकिल लिए दौड़े जा रहे हो। चलो वॉलीवाल में दो दो हाथ हो जाए।
सलीम :
अरे नहीं यार वो अब्बु ने खेत में चाय लेकर बुलाया है। तुम तो जानते हो
अगर अब्बा का हुक्म नहीं माना तो रात में घर पर चावलों के साथ मुर्गे की
हड्डी के बजाए मेरी बोटी खाई जाएगी।
कल्लू : क्या मियां ? आप खामखां चचाजान को बदनाम कर रहे है। अरे उनके जैसा नेक इंसान तो इस धरती पर एक आधा ही बचा होगा।
सलीम : बस कर। बस कर। बड़ा निकला चचाजान की तारीफ़ करने। अरे इतना ही प्यार आ रहा है अपने उस चाचा पर तो आजा उसके साझे क्यों नहीं हो जाता ?
कल्लू : नहीं भाई हमें तो अपना घर पर ही ठीक है।
कल्लू की बात खत्म करने से पहले ही मनीष की आवाज़ आती है।
मंजीत (दूर से आवाज़) : ओए सलीमें! क्या हुआ भाई ? दो-दो हाथ हो जाए ?
कल्लू : कह रहा है.. इसके पास वक्त नहीं है।
कल्लू की बात पूरी करने तक मंजीत वहाँ पहुँच जाता है। सलीम के कंधे पर हाथ रखते हुए।
मंजीत : ओए चल यारा ! एक मैच खेल के चले जाना।10 मिनट लगने है कोई पहाड़ नहीं टूट जाना। और हम कौनसा तुझे पूरी रात पकड़कर रखने वाले है। ओए आकाश आजा यार तू भी आ जा। कभी तो हमारे साथ भी खेल भी खेल लिया कर।
सलीम : चल आकाश। एक पारी खेल कर चलते है।
आकाश : भाई तू खेल मैं तो चला। खुद भी मरेगा हमें भी मरवाएगा।( चलते हुआ ) और सुन। परसो अंग्रेजी तो टेस्ट है। ध्यान रखियो।
सलीम : ठीक है। बस एक मैच खेल कर आता हूँ।
सलीम : चल कल्लू तेरा भी दम देख लेते है। आज बेटा मैच में अगर तेरी नाक नहीं रगड़वाई ना तो देखना मेरा नाम भी सलीम नहीं।
कल्लू : नहीं भाई हमें तो अपना घर पर ही ठीक है।
कल्लू की बात खत्म करने से पहले ही मनीष की आवाज़ आती है।
मंजीत (दूर से आवाज़) : ओए सलीमें! क्या हुआ भाई ? दो-दो हाथ हो जाए ?
कल्लू : कह रहा है.. इसके पास वक्त नहीं है।
कल्लू की बात पूरी करने तक मंजीत वहाँ पहुँच जाता है। सलीम के कंधे पर हाथ रखते हुए।
मंजीत : ओए चल यारा ! एक मैच खेल के चले जाना।10 मिनट लगने है कोई पहाड़ नहीं टूट जाना। और हम कौनसा तुझे पूरी रात पकड़कर रखने वाले है। ओए आकाश आजा यार तू भी आ जा। कभी तो हमारे साथ भी खेल भी खेल लिया कर।
सलीम : चल आकाश। एक पारी खेल कर चलते है।
आकाश : भाई तू खेल मैं तो चला। खुद भी मरेगा हमें भी मरवाएगा।( चलते हुआ ) और सुन। परसो अंग्रेजी तो टेस्ट है। ध्यान रखियो।
सलीम : ठीक है। बस एक मैच खेल कर आता हूँ।
सलीम : चल कल्लू तेरा भी दम देख लेते है। आज बेटा मैच में अगर तेरी नाक नहीं रगड़वाई ना तो देखना मेरा नाम भी सलीम नहीं।
कल्लू : बापू माफ़ कर दे। गलती होगी। हाहा। साले चल अपनी टीम संभाल।
वॉलीवाल मैच का दृस्य। धुल भरे मैदान में कुछ दस बारह बच्चे खेलते हुए। थोड़ी सी दुरी पर तालाब किनारे लगे हैंडपंप से कुछ लड़कियां पानी भरते हुए। जिनमे एक लड़की हाथ में मटका लिए खेल रहे लड़कों की और टकटकी लगाये देख रही है। दो औरते वही बैठी अपने बर्तन मांज रही है और एक औरत (नए कपडे पहने हुए ) हैंडपंप चला रही है।
और थोड़ी देर बाद उंनका सफर रोजाना की तरह पड़ाव पर आ गया।
एक रोज फल वाले भैया के पास खड़ा तरबूज खा रहा था कि वहां थोड़ी देर में एक महिला चमचमाती कार में आती है और भैया को कहती है - भैया चार सड़े हुए केले दे दो। मैंने तरबूज खाते - २ उसे घूरती हुई निगाहों से देखकर ignore मारना चाहा। भैया को शायद "सड़े हुए" शब्द सुनाई नहीं दिए और वो चार केले उठकर देने लगे। काले चश्मों को आँखों से उतारकर सर पर लगते हुए उसने कहा अरे भैया सड़े हुए नहीं क्या ? वो बाई को खिलने थे। भैया 'सड़े हुए' शब्द सुनकर चौंके।
मैंने भी थोड़ी उत्सुक निगाहों से देखा और उसकी नौकरी का अंदाज़ा लगाने लगा। लेखक होगी। शायद एक किताब चल गयी होगी। दूसरी कभी छपी नहीं होगी। नहीं नहीं लेखक नहीं हो सकती। एक किताब से इतनी बड़ी गाडी नहीं खरीद पाती। जरूर एक्ट्रेस होगी। शायद किसी कपूर या खान के झांसे में आ गयी होगी। उसकी तरफ मेरी निगाह थोड़ी तिरछी हो गयी। फिर लगी BMC में अधिकारी होगी। शायद बिल्डर ने पेमेंट नहीं की होगी इसीलिए सस्ते केले खरीद रही है। ये सब ख्याल दिमाग में कुलांचे मार ही रहे थे कि भैया ने बड़ी मशक्कत के साथ चार सड़े हुए केले निकालकर देते हुए कहा - ये लीजये मैडम।
मैडम ने पर्स से दस का नोट निकाला तो भैया ने तुरंत भोंहे चढ़ाई और कहा - मैडम दस रुपए में केवल तीन केले ही आते है।
मैडम तुरंत बोली - क्या भैया ? एक तो सड़े हुए केले खरीद रही हो और आप हो मुझे ही चम्पी लगा रहे हो। पकड़ो। घर पर बाई इंतज़ार कर रही होगी।
विचार आया - हे बाई ! तेरी खुद की कोई मजबूरी हो कि ये सड़े हुए केले भी अच्छे लगे। बिना मजबूरी के ऐसे हालातों का सामना करना बड़ा कठिन होता है।
उसके जाने के बाद भैया ने कहा - देखो साहब ! कैसा जमाना आ गया है ? बाई को सड़े केले खिला रही है।
हमने सिर्फ इतना कहा - भैया ! जमाना पहले भी ऐसा ही था। बस फर्क इतना है कि आज चौदराईन की इज्जत नहीं है इसलिए कुर्सी पर बिठा कर सड़े केले खिला रही है। वरना इज्जत के डर से अच्छे केले घर के बाहर बिठाकर खिलाने पड़ते।
वॉलीवाल मैच का दृस्य। धुल भरे मैदान में कुछ दस बारह बच्चे खेलते हुए। थोड़ी सी दुरी पर तालाब किनारे लगे हैंडपंप से कुछ लड़कियां पानी भरते हुए। जिनमे एक लड़की हाथ में मटका लिए खेल रहे लड़कों की और टकटकी लगाये देख रही है। दो औरते वही बैठी अपने बर्तन मांज रही है और एक औरत (नए कपडे पहने हुए ) हैंडपंप चला रही है।
और थोड़ी देर बाद उंनका सफर रोजाना की तरह पड़ाव पर आ गया।
सड़े हुए केले और बाई
एक रोज फल वाले भैया के पास खड़ा तरबूज खा रहा था कि वहां थोड़ी देर में एक महिला चमचमाती कार में आती है और भैया को कहती है - भैया चार सड़े हुए केले दे दो। मैंने तरबूज खाते - २ उसे घूरती हुई निगाहों से देखकर ignore मारना चाहा। भैया को शायद "सड़े हुए" शब्द सुनाई नहीं दिए और वो चार केले उठकर देने लगे। काले चश्मों को आँखों से उतारकर सर पर लगते हुए उसने कहा अरे भैया सड़े हुए नहीं क्या ? वो बाई को खिलने थे। भैया 'सड़े हुए' शब्द सुनकर चौंके।
मैंने भी थोड़ी उत्सुक निगाहों से देखा और उसकी नौकरी का अंदाज़ा लगाने लगा। लेखक होगी। शायद एक किताब चल गयी होगी। दूसरी कभी छपी नहीं होगी। नहीं नहीं लेखक नहीं हो सकती। एक किताब से इतनी बड़ी गाडी नहीं खरीद पाती। जरूर एक्ट्रेस होगी। शायद किसी कपूर या खान के झांसे में आ गयी होगी। उसकी तरफ मेरी निगाह थोड़ी तिरछी हो गयी। फिर लगी BMC में अधिकारी होगी। शायद बिल्डर ने पेमेंट नहीं की होगी इसीलिए सस्ते केले खरीद रही है। ये सब ख्याल दिमाग में कुलांचे मार ही रहे थे कि भैया ने बड़ी मशक्कत के साथ चार सड़े हुए केले निकालकर देते हुए कहा - ये लीजये मैडम।
मैडम ने पर्स से दस का नोट निकाला तो भैया ने तुरंत भोंहे चढ़ाई और कहा - मैडम दस रुपए में केवल तीन केले ही आते है।
मैडम तुरंत बोली - क्या भैया ? एक तो सड़े हुए केले खरीद रही हो और आप हो मुझे ही चम्पी लगा रहे हो। पकड़ो। घर पर बाई इंतज़ार कर रही होगी।
विचार आया - हे बाई ! तेरी खुद की कोई मजबूरी हो कि ये सड़े हुए केले भी अच्छे लगे। बिना मजबूरी के ऐसे हालातों का सामना करना बड़ा कठिन होता है।
उसके जाने के बाद भैया ने कहा - देखो साहब ! कैसा जमाना आ गया है ? बाई को सड़े केले खिला रही है।
हमने सिर्फ इतना कहा - भैया ! जमाना पहले भी ऐसा ही था। बस फर्क इतना है कि आज चौदराईन की इज्जत नहीं है इसलिए कुर्सी पर बिठा कर सड़े केले खिला रही है। वरना इज्जत के डर से अच्छे केले घर के बाहर बिठाकर खिलाने पड़ते।
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