मैंने बचपन से अपनी दीदी को देखा उसको मालूम था कि दो छोटे भाइयों को कैसे पालना है। कब किसको लताड़ना है , किसे पुचकारना है। चोट लगे खेल में तो गेंदे का रस कैसे ढारना है और पीकर आए हो बाबूजी तो जूते कैसे उतारना है। मेरी दीदी को मेहमान बढ़ जाने पर चार कप चाय को छः बनाने का हुनुर मालूम था। और लिट्टी बनाते हुए, उसमे भुट्टे भुनाने का गुर भी उसका बहुत खूब था। मेरी दीदी क्या खूबसूरत थी हिमालय जैसे उसकी नाक थी और रंग उसका सुंदरबन में छनती हुई धुप था सुबह जब हल्दी का उबटन लगाती थी तो लगता था कनइल का फूल है शाम को जब दिया जलाएगी तो मिस्टी मिलेगी ये मुझे मालूम था। लेकिन एक दिन मेरी दीदी, दीदी से औरत हो गई अब उस औरत से बहुत दूर था जिसका कभी मैं कभी आखो का नूर था। अब घर में गंदले मोज़े मिलते थे रुमाल सारे गुम थे, आलू में नमक तेज था रोटिया कच्ची थी, कमिजो में बटन नहीं थे तकिये में कवर नहीं था, गद्दों में खटमल मौजूद थे जहाँ गयी थी वो औरत वहां बताते है पिताजी कि उसका बड़ा रसूख था। मै सोचता था कि कितना कमीना है वो मुच्छड़ जिसने मेरी दीदी को धोखेबाज बना दिया। खैर ढेड साल बाद मुझे बताया गया कि मेरी ...