गुरुवार, 23 जुलाई 2015

मेरी नई कहानी - शब्दों की दुनिया की श्रंखला से

जिम्मेदारी

शब्दों की भी एक अजीब दुनिया है। ना जाने कितने ही प्रकार के भिन्न-२ स्वरुप लिए हुए शब्द रोजाना हमारी जिंदगी के साथ उठकपठक खेलते है। कुछ पहचाने हुए होते है तो कुछ अक्सर अपरिचित शब्द भी हमसे टकराने में नहीं डरते और जाने अनजाने में हम उन्हें अपना बना लेते है। हाँ ये भी है कि बहुत से शब्दों से लगभग रोजाना मुलाकात होने के बावजूद हम वो घनिष्ठता स्थापित नहीं कर पाते। लेकिन ये शब्द हमारा इस तरह पीछा करते है कि उनका नाम सुनते ही रूह काँपने लगती है। और एक ऐसा ही शब्द है जिम्मेदारी।


ये बचपन से लेकर आज तक साए की तरह पीछे पड़ा हुआ है। जब दिनभर टॉफी की चाहत में माँ के चारों तरफ चक्कर लगाता तो माँ के झल्ला उठने पर दादी बस यही कहती - बच्चा है। मांग लिए तो क्या हुआ ? एक साल बाद स्कूल की जिम्मेदारी से अक्ल आ जाएगी और अपने आप ये बच्चपना हरकते बंद हो जाएगी।


अब जनाब जब स्कूल जाने लगा तो गंदे कपड़ो के साथ-२ मास्टरों और साथी बच्चों के शिकायतों के थेले भी भर - भर कर घर आने लगे। इस पर सभी घर वालों को देर अंधेर चिल्लाने का मौका मिल जाता। बस साथ होती थी तो वो थी दादी। जो सबको शांत कर देती ये कहकर कि दो साल की तो बात है। जब आठवी कक्षा आएगी तो बोर्ड परीक्षा की जिम्मेदारी अपने आप अक्ल ला देगी।


जनाब जब आठवी कक्षा आई तो सचमुच लगने लगा कि जिम्मेदारी आ गयी जिसे देखो वो यही कहता- बेटा …आठवी कक्षा जिंदगी की बड़ी मुश्किल कड़ी है। अगर तुम ये कड़ी अच्छे से सुलझा लोगे तो आगे की जिंदगी की कड़ियाँ अपने आप सरल हो जाएगी। अब भैया सब लोग जब इस तरह पहली बार एक सुर में जिम्मेदारी का जिक्र करने लगे तो सचमुच लगा कि जिम्मेदारी से मुलाकात हो गयी है। और जिम्मेदारी की इस उठापठक ने आख़िरकार माथे पर चिंता की लहर दौड़ा दी। जिसका फल ये हुआ कि मैदानों के रास्ते पथरीले हो गए तो वही दोस्तों की गोष्ठी अक्षर फीकीं जाने लगी और स्वरुप तोह भैया आप.. समझ ही सकते है। अनजाने में आये जिम्मेदारी के इस बोझ ने जीवन रफ़्तार पर थोड़ी लगाम सी लगा दी।


मगर अचानक एक दिन जिम्मेदारी के टल जाने का भ्रम हुआ जब आठवीं की कक्षा के परिणाम आए। घर में मिठाइयों के ढेर लग गए और हद तो तब पार हो गयी जब बिना मांगे (बिना किसी शादी समारोह के ) जींस की एक चमचमाती ड्रेस सफ़ेद स्पोर्ट्स सूज के साथ मिल गयी। और पतंगों की लहरों के साथ जिम्मेदारी की दुनिया गायब सी हो गयी। मैदानों की राहें और दोस्तों की गोष्ठी के साथ - साथ पड़ोस की पारो की मुस्कराहट का भी रुख बदल गया और जिंदगी की हर सीमा पर अपना कब्ज़ा नजर आने लगा।


मगर बदचलन जिम्मेदारी ना जाने कहाँ से राह ढूंढ़ती हुई सही एक साल बाद फिर से जिंदगी में आ टपकी। इस बार स्कूल के सारें मास्टरों ने हाथ में नीम की लकड़ी की बड़ी - बड़ी छड़ें लेकर जिम्मेदारियों का बखान शुरू किया। दादी जो अब साथ ना थी बहुत याद आने लगी। तब पता चला कि दादी जिम्मेदारी जैसी चीज़ों को कितनी आसानी के साथ जिंदगी से जोड़ देती। मगर ये मास्टर जी तो बड़े - बड़े डंडे लेकर जिम्मेदारियां झाड़ने लगे। मैदानों का रास्ता फिर कंकड़ हो गया, गोष्ठी भी ठंडी पड़ गयी, यहाँ तक की पारो का गुलाबी चेहरा भी सुनसान सा नजर आने लगा। हालाँकि फिर एक वर्ष बाद घर में मिठाइयां आई। साईकिल भी मिल गयी, पर पतंगों की लहरे ना जाने क्यों जिंदगी की रफ़्तार ना बड़ा सकी ? और जिम्मदारी का बोझ लगातार बढ़ता चला गया।


ग्रेजुएट हो जाने के कारण गाँव के कुछ गिने चुने शिक्षित लोगों में नाम शामिल हो गया। ग्रेजुएट फर्स्ट क्लास से पास होने पर लगा कि जिंदगी में कुछ बड़ा करेंगे और मन दिल्ली जैसे शहर की उड़ान भरने लगा। मगर इतने में ही छोटे भाई की पढाई तथा बहन की  शादी की जिम्मेदारियों ने चारों और से घेर लिया। मन तो था बहुत दूर जाने का मगर सफर खत्म हुआ डाकियें की नौकरी से। बूढी दीवारों के बीच खादी ड्रेस पहने हुए खतों की दुनिया में गुम हो चूका आज बस जिम्मेदारी को उसकी अलग - अलग मंजिल तक पंहुचा रहा है।



बड़े भाई के नाम.

सरकारी स्कूल अच्छे है ।

यह गाँव का आँगन है ।  ज्ञान का प्रांगण है ।  यहाँ मेलजोल है ।  लोगों का तालमेल है ।  बिना मोल है फिर भी अनमोल है ।  इधर-उधर भागता बचपन है । ...