बुधवार, 10 दिसंबर 2014
रविवार, 7 दिसंबर 2014
२७०० दलित सफाई मज़दूरों की ऐतिहासिक जीत
२७०० दलित सफाई मज़दूरों की ऐतिहासिक जीत
हाल ही में मुंबई के २७०० दलित मज़दूरों ने मुंबई महानगरपालिका के खिलाफ एक ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की है। इस लड़ाई की शुरुआत १९९७ में सफाई मज़दूरों ने कचरा वाहतूक श्रमिक संघ नामक यूनियन की अगुवाई में की। कचरा वाहतूक श्रमिक संघ मज़दूरों के हक़ में लड़ने वाली एक अग्रणी मज़दूर यूनियन है जिसकी स्थापना १९९७ में मुंबई के कुछ सफाई मज़दूरों ने कामरेड दीपक भालेराव तथा कामरेड मिलिंद रानाडे की अध्यक्ष्ता में की।
सभी सफाई मज़दूर मुंबई महानगर पालिका में पिछले आठ-नौ सालों से लगातार साफ़ सफाई का काम कर रहे है। परन्तु मुंबई महानगरपालिका ने उन्हें उनका कर्मचारी का हक़ न देकर उन्हें ठेका प्रथा पर रखा तथा मज़दूरों की और उनके परिवार वालों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ किया। इन मज़दूरों को सालों की मेहनत के बाद भी वेतन के नाम पर मुश्किल से किमान वेतन मिलता है। भविष्य निर्व्हा निधि, चिकित्सा सुविधा जैसी मुलभुत सुविधाओं के लिए ये मज़दूरों सालों से तरसते आ रहे है।
परन्तु बॉम्बे इंडस्ट्रियल कोर्ट के इस फैसले ने वर्षो से देश को स्वच्छ रखते आ रहे अमुक तथा अदृश्य पीड़ित सिपाहियों को न्याय देकर उन्हें तथा उनके बच्चों को एक नई जिंदगी प्रदान की है। कोर्ट ने मुंबई महानगरपालिका की ठेकेदारी प्रथा को "sham and bogus" बताया। यानी कि कोर्ट ने इसे केवल कागजी कार्यवाही बताया है। तथा इसे मज़दूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखने का एक गैरकानूनी तरीका बताया है। कोर्ट ने मुंबई महानगरपालिका को लताड़ते हुए सभी मज़दूरों को नौकरी लगने के २४० दिन के बाद से स्थाई नौकरी देने का हुकुम दिया है। इससे सभी मज़दूरों को उनका पिछले आठ नौ साल का बकाया पैसा भी मिलेगा जो की हर मज़दूर के हक़ में कम से कम छः लाख रुपए आता है।
परन्तु अब देखना ये होगा मुंबई महानगर पालिका जो कि सालों से कानून को नजरअंदाज कर मज़दूरों को ठेका प्रथा पर रखती आई है कोर्ट के आदेश का कहां तक पालन करती है। या फिर दलित मज़दूरों की जिंदगियों के साथ ये खिलवाड़ जारी रखती है।
हाल ही में मुंबई के २७०० दलित मज़दूरों ने मुंबई महानगरपालिका के खिलाफ एक ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की है। इस लड़ाई की शुरुआत १९९७ में सफाई मज़दूरों ने कचरा वाहतूक श्रमिक संघ नामक यूनियन की अगुवाई में की। कचरा वाहतूक श्रमिक संघ मज़दूरों के हक़ में लड़ने वाली एक अग्रणी मज़दूर यूनियन है जिसकी स्थापना १९९७ में मुंबई के कुछ सफाई मज़दूरों ने कामरेड दीपक भालेराव तथा कामरेड मिलिंद रानाडे की अध्यक्ष्ता में की।
सभी सफाई मज़दूर मुंबई महानगर पालिका में पिछले आठ-नौ सालों से लगातार साफ़ सफाई का काम कर रहे है। परन्तु मुंबई महानगरपालिका ने उन्हें उनका कर्मचारी का हक़ न देकर उन्हें ठेका प्रथा पर रखा तथा मज़दूरों की और उनके परिवार वालों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ किया। इन मज़दूरों को सालों की मेहनत के बाद भी वेतन के नाम पर मुश्किल से किमान वेतन मिलता है। भविष्य निर्व्हा निधि, चिकित्सा सुविधा जैसी मुलभुत सुविधाओं के लिए ये मज़दूरों सालों से तरसते आ रहे है।
परन्तु बॉम्बे इंडस्ट्रियल कोर्ट के इस फैसले ने वर्षो से देश को स्वच्छ रखते आ रहे अमुक तथा अदृश्य पीड़ित सिपाहियों को न्याय देकर उन्हें तथा उनके बच्चों को एक नई जिंदगी प्रदान की है। कोर्ट ने मुंबई महानगरपालिका की ठेकेदारी प्रथा को "sham and bogus" बताया। यानी कि कोर्ट ने इसे केवल कागजी कार्यवाही बताया है। तथा इसे मज़दूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखने का एक गैरकानूनी तरीका बताया है। कोर्ट ने मुंबई महानगरपालिका को लताड़ते हुए सभी मज़दूरों को नौकरी लगने के २४० दिन के बाद से स्थाई नौकरी देने का हुकुम दिया है। इससे सभी मज़दूरों को उनका पिछले आठ नौ साल का बकाया पैसा भी मिलेगा जो की हर मज़दूर के हक़ में कम से कम छः लाख रुपए आता है।
परन्तु अब देखना ये होगा मुंबई महानगर पालिका जो कि सालों से कानून को नजरअंदाज कर मज़दूरों को ठेका प्रथा पर रखती आई है कोर्ट के आदेश का कहां तक पालन करती है। या फिर दलित मज़दूरों की जिंदगियों के साथ ये खिलवाड़ जारी रखती है।
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