बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai


हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

ऐसा कभी नहीं हुआ था।

धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग का नरक के निवास-स्थान 'अलाट' करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड़ में ही नहीं आ रही थी। आखिर उन्होंने खोज कर रजिस्टर इतने जोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गयी। उसे निकालते हुए वे बोले, "महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा।"

धर्मराज ने पूछा, "और वह दूत कहाँ है?"

"महाराज, वह भी लापता है।"

इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बड़ा बदहवास वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, "अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?"

यमदूत हाथ जोड़कर बोला, "दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोला राम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ गायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कही पता नहीं चला"

दूत ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मेरी सावधानी में बिल्कुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से, अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके। पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।"

चित्रगुप्त ने कहा, "महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को कुछ चीज भेजते है और उसे रास्ते में ही रेलवेवाले उड़ा लेते हैं। हौजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे अफसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे-के-डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव कोभी तो किसी विरोधी के मरने के बाद दुर्गति करने के लिए नहीं उड़ा दिया?"

धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, "तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गयी। भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?"

इसी समय कहीं घूमते-घामते नारद मुनि वहाँ आ गये। धर्मराज को गुम-सुम बैठे देख बोले, "क्यों धर्मराज, कैसे चिन्तित बैठे है? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?"

धर्मराज ने कहा, "वह समस्या तो कभी की हल हो गयी। नरक में पिछले सालों से बड़े गुणी कारीगर आ गये हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनायीं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गये हैं, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाज़िरी भरकर पैसा हड़पा, जो कभी काम पर गये ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गयी, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गयी है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद मिट जायेगा।"

नारद ने पूछा, "उस पर इनकमटैक्स तो बकाया नहीं था?  हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो।"

चित्रगुप्त ने कहा, "इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।"

नारद बोले, "मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा मुझे उसका नाम, पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।"

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बताया, "भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर मे घमापुर मोहल्ले में नाले के किनारे एक-डेढ़ कमरे के टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और लड़की। उम्र लगभग साठ साल। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत सम्भव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसे भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको तलाश में काफी घूमना पड़ेगा।"

माँ-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गये।

द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज लगायी, "नारायन! नारायन!" लड़की ने देखकर कहा, "आगे जाओ महाराज!"

नारद ने कहा, "मुझे भिक्षा नहीं चाहिए; मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो, बेटी!"

भोलाराम की पत्नी बाहर आयी। नारद ने कहा, "माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?"

'क्या बताऊँ?  गरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गये, पेंशन पर बैठे, पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता, तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गये। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया।"नारद ने कहा, "क्या करोगी माँ? उनकी इतनी ही उम्र थी।"

"ऐसा तो मत कहो, महाराज! उम्र तो बहुत थी। पचास-साठ रूपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुजारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।"

दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आये,  "माँ यह तो बताओं कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?"

पत्नी बोली, "लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से ही होता है।"

"नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, किसी स्त्री------"

स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, "कुछ मत बको महाराज! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो। जिन्दगी-भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखा।"

नारद हँसकर बोले, "हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा, माता मैं चला।"

स्त्री ने कहा, "महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष है। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाये। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाये।"

नारद को दया आ गयी थी। वे कहने लगे, "साधुओं की बात कौन मानता है?  मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ्तर में जाऊँगा और कोशिश करूँगा।"

वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुँचे। वहाँ पहले ही कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोल, "भोलाराम ने दरख़्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गयी होंगी।"

नारद ने कहा, "भई, ये बहुत-से 'पेपर-वेट' तो रखे है। इन्हें क्यों नहीं रख दिया?"

बाबू हँसा - "आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरख़्वास्तें 'पेपर-वेट' से नहीं दबतीं। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।"

नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास, चौथे ने पाँचवें के पास। जब नारद पचीस-तीस बाबुओं और अफसरों के पास घूम आये तब एक चपरासी ने कहा, "महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गये। आप अगर साल-भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जायेगा।"

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊँघ रहा था, इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं। बिना 'विजिटिंग कार्ड' के आया देख, साहब बड़े नाराज हुए। बोले, "इसे मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आये। चिट क्यों नहीं भेजी?"

नारद ने कहा, "कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है।"

"क्या काम है?" साहब ने रोब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेंशन-केस बतलाया।

साहब बोले, "आप है वैरागी। दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते। असल में भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी एक मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते है। भोलाराम की दरख़्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर वज़न रखिए।"

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गयी। साहब बोले,  "भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ़्तरों में जाता है। देर लग ही जाती है। बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है। जितनी पेंशन मिलती है, उतने ही स्टेशनरी लग जाती है। हाँ, जल्दी भी हो सकता है, मगर----" साहब रूके।

नारद ने कहा, "मगर क्या?"

साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, "मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आपकी यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख़्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना-बजाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूँगा।  साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं।"

नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबड़ाये। पर फिर सँभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, "यह लीजिए। अब जरा जल्दी उसकी पेंशन का आर्डर निकाल दीजिए।"

साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुरसी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजायी। चपरासी हाज़िर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, "बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।"


थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़ सौ दरख़्वास्तों से भरी फ़ाइल लेकर आया। उसमें पेंशन के कागजात भी थे। साहब ने फाइल पर का नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, "क्या नाम बताया साधुजी आपने?"

नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है। इसलिए जोर से बोले, "भोलाराम!"

सहसा फाइल में से आवाज आयी, "कौन पुकार रहा है। मुझे?  पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?"

नारद चौंके। पर दूसरे ही क्षण बात समझ गये। बोले, "भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?"

"हाँ,"  आवाज आयी।

नारद ने कहा, "मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। चलो, स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।"

आवाज आयी, "मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख़्वास्तों में अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख़्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।"

रविवार, 9 अक्टूबर 2016

अच्छे पापा !!

लड़का: क्यों जी आज मोहतरमा जी का मुंह क्यों उतरा हुआ है ?

लड़की: घर  में हर कोई मुझे ही डांटता रहता है। आज बंटी की गलती पर भी पाप ने मुझे ही दांत दिया। मैंने तो कुछ किया भी नहीं था।


लड़का : Arey ! कोई नहीं यार।  पापा है तेरे। बड़ा समझकर माफ़ कर दे।  


लड़की: पापा है तो क्या हुआ ? इसका मतलब ये तो नहीं है कि जब मन करे तब डांटने लग जाए। और वो उस बंटी को क्यों कुछ नहीं कहते।  


लड़का : ओ! मेले बाबू को इतनी डांट पड़ी। कोई नहीं बाबू । इतनी छोटी सी बात पर नाराज नहीं होते। पापा है आपके।  


लड़की : तुम रहने दो। तुम हमेशा उनकी ही साइड लेते हो।  


लड़का : अले बाबु ! मैं किसी की साइड नहीं ले रहा। मैं तो बस कह रहा था कि पापा ने ऐसे ही प्यार प्यार में डांट दिया होगा।  


लड़की : तुम चुप ही रहो।  मेरी तो कोई सुनता ही नहीं है। कोई प्यार व्यार से नहीं डांटा, पुरे एक घंटे लेक्चर दिया है। तुम भी धोखेबाज निकले। सब लोग मुझे ही तंग करते रहते है।  


लड़का : आने दे उस बुड्ढे खुस्सट को।  मार मारकर अगर उसकी तोंद पतली ना करदी तो मेरा नाम बदल देना। 


लड़की : shut up !! He is my dad. How dare you to speak like that for my dad? I love my dad.


Ladka : ओ। तुम कितनी स्वीट हो जानू। तुम्हारे डैड भी कितने अच्छे है। Even I love your dad. 

शनिवार, 24 सितंबर 2016

देश के जज्बाती युवाओं के नाम एक खुला पत्र

देश के जज्बाती युवाओं के नाम एक खुला पत्र

मित्रों,
इस खत को लिखते वक़्त ना ही मैं गर्व महसूस कर रहा हूँ और ना ही निराशा। पर हाँ एक अजीब की सिकुडन में फंसा हुआ लगता हूँ। आज जब कभी मैं सोशल मीडिया पर देश के भविष्य की टिप्पणियां पढता हूँ तो मुझे लगता है कि आज का युवा केवल सही और गलत की बंटाधार लड़ाई में बट चूका है। वो शायद अपनी तर्कसंगत वाली पहचान खो चूका है या उसकी सोचने की शक्ति पर पहरा है। 
नई सोच की उम्मीदों वाले देश में ही आज सोचने पर पहरा लग गया है  और ये पहरा किसी और ने नहीं हम सब ने अपने आप लगाया है।  ऐसा नहीं है कि ये कोई नई चीज़ है या इत्तिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। परंतु आज की आधुनिक दुनिया ने सोचने की अक्षमता को कई गुना शक्ति प्रदान की है . ऐसे व्यक्ति जिनको देसी भाषा में भेड़ चाल चलने वाला कहा जाता है एक दायरे में आ गए है। उनको अपने आपको सही करार देने का मौका हाथ में मिला हुआ है। स्तिथि यह है की एक इंसान अपने आपको सही करार देता ही है की उसके दायरे (साझी सोच) वाले लोग उसको महान बताकर उसका प्रचार प्रसार करने लग जाते है। तो वही उसके विपक्षि  (विरोधी सोच) वाले लोग उसे झूठा साबित करने में लग जातें है 
और यहाँ से शुरू होती है पक्ष विपक्ष की लड़ाई। अगर आप किसी एक दायरे के पक्ष में है तो आपको विपक्षी दल को झूठा साबित करना ही करना है। एक बार भी आप उस पर सोचने का भार नहीं डालना चाहते। अगर आपको लगा कि विपक्ष सचमुच सही है तो मन ही मन बोलोगे - अरे यार ! कह तो सही रहा है लेकिन अपने दायरे का थोड़े ही है।  आप या तो उसके विरोध में कहानी चालु रखोगे या उसको सच्चे दिल से ignore मार दोगे।  
आज आपने इतिहास को भी इसी तरह बात दिया है और देश के लिए कुर्बानियां देने वाले क्रांतिकारी आपके दायरों में बात गए है .सबने अपनी अपनी सुविधानुसार क्रांतिकारियों पर अपना हक़ कब्ज़ा लिया है। सच्चाई की तह तक जाए बगैर आपने इधर उधर से अपनी सोच वाली सामग्री इकठ्ठा कर उसको अपने हिसाब से इतिहास बना दिया है। और आपके दायरे के लोग उसका प्रचार प्रसार करने में लगे है। सोचिये क्या होता अगर आज़ादी के समय हमारे देश के भविष्य निर्माता इस तरह आपस में एक दूसरे पर कीचड़ उछालकर लड़ रहे होते।  ऐसा नहीं है कि वो सब एक सोच रखते थे बल्कि उनके सबके अपने स्वतंत्र मत थे . और उन्होंने अपने मतों की पूरी व्याख्या भी दी है। पर जब देश की बात आती थी तो वो सब अलग-अलग मतों वाले लोग एक साथ आकर बैठते थे और विपक्षी मतों को समझकर ध्यान में रखते हुए सही निर्णय निकालते थे। कुछ लोग बड़ी आसानी से कह देते है कि आज़ादी के तुरंत बाद ऐसा ही होता है, उनके पास एक साथ बैठने के अलावा कोई और चारा नहीं था। हालांकि बहुत से देशों में ऐसा नहीं हुआ और आज वो देश वापस गुलामों की बेड़ियों में जा चुके है। 
चलिए मैं आपको इतिहास से वापस वर्तमान मैं लाता हूँ आपके प्रिय नेता के पास। ऐसा लगता है कि आपने किसी एक नेता के बारें में बोलने की आज़ादी का पंजीकरण करा लिया है।  अब आपके नेताजी पर जो कोई टिपण्णी करेगा आप उसे तुरंत दायरे में डाल लोगे। अगर आजकल आपको कोई युवा खूश और तंदूरस्त दिखे तो समझ जाना उसके विपक्ष का भरपूर मजाक उड़ाया जा रहा है . 
देश का युवा आज गाडी का वो पहिया बन चूका है की उसको राजनीतिक पार्टियां जहाँ ले जाना चाहती है वहां  ले जा रही है।  राजनीतिक पार्टियों की फिट की हुई चाबियाँ आपकी सोच पर इस कदर आती पालती मारकर बैठ गयी है कि जब वो चाहे, जिधर चाहे, आप उसी वक़्त उधर चलने लग जाते है। जिस तरह गुलाम व्यक्ति नशे में ही अपनी आज़ादी को महसूस कर पाता है उसी तरह एक दूसरे की बुराई या बर्बादी पर ही आपकी आज़ादी की अभिव्यक्ति टिकी हुई है।  सलाह देने की औकात तो नहीं रखता पर इतना जरूर कहूंगा कि वो अपनी स्वतंत्र सोच रखे।  अपने नेताओं और चहेतों से सवाल करे और अपने विपक्षियों से मुद्दे पर चर्चा करे।  

राम-राम 

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

इंतज़ार


आज तुम अभी तक नहीं आई हो, मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी। याद है जब तुम पहली बार आई थी तब से ही तुम मेरी चहेती बन गयी थी। तुम जब सीना तानकर मेरे सामने खड़ी होती तो लगता कि मेरे हठपन को चुनौती दे रही हो। तुम कहती कि मैं तुम्हारे रास्तें में रुकावट बन कर खड़ी  हूँ और तुम्हे मंजिल पहुँचने में बेवजह देरी पहुंचाती हूँ। तुम सही भी थी क्योँकि तुमको ना जाने कितनी बार मुझसे और मेरी सहेलियो से टकराना पड़ता था। क्या करे हमारी मंजिल भी यही और हमारा घर भी यही। हमें तो रोजाना बस एक जगह खड़े खड़े तुम जैसो को सलामी ठोकनी पड़ती है। आखिर हमारा नसीब तुम्हारे जैसा कहाँ, जो पूरा शहर घूमने को मिलें। ना जाने कितने ही चेहरे अलग अलग प्रतिक्रिया लिए हुए तुम्हारे साथ सफर करते है। वो सभी तुम्हारे साथ मंजिल को पाने की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। कुछ थोड़े दुखी होते है, तो कुछ उत्साह से भरे हुए, कुछ तुम्हे समय पर आता देख ख़ुशी से झूम उठते है तो कुछ तुम्हारे लेट होने की वजह से जमाने से लेकर मौसम तक और नेताओ से लेकर अपनी नौकरी सभी चीजोँ को बारी बारी कोसते है। हालांकि तुम्हे देखते ही सब-कुछ भुलाकर दौड़ पड़ते है अपनी मंजिल के रास्तो का हमसफ़र बनाने। कुछ की मंजिल थोड़ी पास होती है तो कुछ की थोड़ी दूर।

कमबख्त तुम भी लोगो के साथ बड़ी दुभात करती हो। कुछ को अपने आँचल में बिठाती हो तो कुछ को खड़े खड़े ही उसकी मंजिल तक ले जाती हो। पर पता है हमारे साथ सभी लोगोँ का एक सा बर्ताव रहता है। सभी हमारे चेहरो को अपनी निगाहोँ से देखते है। हाँ कुछेक के चेहरे पर लाचारी भी झलकती है। सभी बस जैसे हमारे चेहरे बदलने का इंतज़ार करते है।  पता है जब हमारा चेहरा लाल होता है (वो गुस्से वाला) तो लोगोँ का चेहरा उतर जाता है। बड़ा मजा आता है कमबख्त लोगोँ की मजबूरी देखकर।जैसे ही हमारे चेहरे का रंग बदलता है बस चालु हो जाती है उनकी भागदौड़ और हर कोई एक दूसरे से आगे निकालना चाहता है।

अरे हाँ ! मैं तो भूल ही गई। बातें करते करते ना जाने मैं कहा भटक जाती हूँ। हाँ तो वो ये कि जब तुम आई थी तो तुम्हारे जैसे हमसे टकराने वाले बस कुछ ही थे पर आज देखो कैसे चीटीँयो की भाँती भीड़ लगी हुई है।तुम हमेशा से एक ही सूट पहनती हो वो लाल, पीले पीलें छीटों वाला। और तुम्हारे सूट पर दूर से चमकता है - १५१।  जिसे देखते ही धड़कने जैसे थम सी जाती है।  मन करता है बस दिन भर तुम्हे घूरती रहूँ और तुम यही मेरे पास खड़ी रहो। पर तुम चली जाती हो मुझे छोड़कर और मैं यही रंग बदलती रह जाती हूँ। 

मालूम नहीं आज मुझे सुबह से ही थोड़ी घबराहट सी होने लगी थी और फिर पता चला कि तुम आज नहीं आ पाओगी। किसी ने बताया की तुम्हे जला दिया गया है। आये थे कुछ लोग झुंड़ हाथ में तलवारे और मशाले लिए हुए अपने मजहबी धर्म का बदला लेने। और सामने दिखाई दी तुम एक गूंगी बहरी।  एक बार तो मुझे तुम पर भी गुस्सा आया कि तुम वहां क्या करने गयी थी।  क्या जरुरत थी तुम्हे वहां जाने की। पर फिर ख्याल आया कि ये तो तुम्हारा काम था और वैसे भी पिछले १२ सालों से भी वहां जा ही रही थी। किसी ने ये भी बताया कि जलाने से पहले तुम्हारे साथ बहुत मारपीट हुई।  तुम्हारी आँखों को फोड़ा गया , जिस्म को जगह जगह से कुरेंदा गया। ये सुनकर तो मेरी रूह ही काँप जाती है।  मन करता है कि तुम्हारे साथ ये सब करने वालों को इतना मारू इतना मारू  .... क्या बिगाड़ा था तुमने उनका।  बस यही कि रोज तुम ऐसे लोगों को अपने aanchal से लगाती।  ऐसे लोगों को जो आज तुम्हारे खून के प्यासे हो गए।  पता चला है कि कल तुम्हारी जगह कोई और ले लेगी। naa जाने कैसी होगी वो। तुम्हारी तरह मुझसे नजर मिला पाएगी या नहीं, पता नहीं।  

रविवार, 5 जून 2016

नमस्कार दोस्तों! । ये किसी स्टेज पर मेरा पहला मौका होगा सो आप लोगों से ख़ास अनुरोध है की अगर मेरी जबान लड़खड़ा जाए या पैर कांपने लगे तो सीटी और आवाज़ों से ही काम चला ले। जूते चप्पलों  का सहारा ना ले। कहना जरुरी है क्योंकि देश का वर्तमान माहौल काफी असहिष्णु है।  फिर भी न्याय देना चाहे तो बाहर ले जाकर दे। आखिर मेरे लिए भी पीटना जरुरी है। किसी ने लिखा है की पीटने के बाद अच्छा लिखा जाता है और मैं तो लेखक बनने के लिए पाकिस्तान जाने को भी तैयार हूँ। 
वैसे पीटने पिटाने से मेरा रिश्ता काफी पुराना है। पिटाई से पहली बार सामना पड़ा था जब दादी को बुढ़िया कहा था। दूसरे बार एक बुड्ढे की धोती खींचने पर और तीसरी बार लड़की को देख सीटी मारने पर। उसके भाई की मार अब तक दुखती है। देखो माथे पर निशान भी है।
आप भी सोचते होंगे कैसा आदमी है। जब देखों पिटता रहता है, इसको तो  इंडियन हॉकी टीम में होना चाहिए। मगर बता दे हमने पीटने में भी डिग्रीयां ले रखी है। आपको शायद मालूम नहीं होगा जब उस कल्लू ने हमारी लाजो को गन्दी निगाह से देखा था तो हमने ससुरे को पिट पीटकर लहू लुहान कर दिए थे।

लोग हमसे अक्सर पूछते है तुम हरयाणवी ये सोशल वर्क पढ़ने कैसे आ गए। लोगों को तो मैं कह देता हूँ कि समाज सेवा की भावना बचपन से थी। थोड़े दिनों में कहूंगा कि लेखक बनने की श्रद्धा भी थी। मगर आपको बता दू कि भावना और श्रद्धा तो हमको पहली बार कॉलेज में मिली थी।  बड़ी ही अच्छी लड़कियां थी। सच तो ये है कि हमने सरपंच की बिटियां लाजो को फंसा लिया था। अपने संग भगाने ही वाले थे कि सरपंच को पता चल गया। हम तो किसी तरह जान बचकर भागे वहाँ से और सीधे पहुंचे बॉम्बे। अब ये मत पूछना लड़की का क्या हुआ ?

बम्बई में टाटा में समाज सेवा पढ़ने लगे। और जब महाराष्ट्र सरकार ने बीफ बैन का कानून निकाला तो एक सच्चे समाजसेवी के नाते बीफ बैन के विरुद्ध मोर्चा खोलने ही वाले थे कि किसी कृष्ण यादव का फ़ोन आया।  कहने लगे -यादव जी सुना है आप बीफ बैन के खिलाफ मोर्चा निकाल रहे है।
हमने कहा - हाँ ! आपने सही सुना।
तुरंत गुस्सा करते हुए बोले - क्या यादव जी हमें आपसे ये उम्मीद कतई नहीं थी। अरे हम यहाँ बछड़े लिए हुए बंसी बजा बजा कर गोपी को खुश करने की कोशिश कर रहे है और एक आप है कि हमारे बछड़े के पीछे पड़े है। अब देखो भैया हम किसी के प्यार के बीच में नहीं आ सकते।
सो हमने कहा - ठीक है कृष्ण जी। आप अपने बछड़े और गोपी के साथ बंसी बजाइए, हम तो बैल से ही रैली निकाल लेंगे।
सोचा ! यार बैल से तो किसी का याराना नहीं होगा। ये सोच ही रहा था कि फिर से फ़ोन बजा। आवाज़ आई कि कोई शिवप्रसाद भोलेनाथ बोल रहे है।
उन्होंने पुछा - यादव जी सुना है आप हमारे बैल को रैली में लेकर जा रहे है।
हमने कहा - जी, सही सुना आपने।
अगले दो मिनट तक हमे गालियों से सजी हुई उपाधियां मिलने लगी।  हमने भी सर झुकाए ग्रहण कर ली।  फिर पुछा भाईसाहब आपको भी किसी गोपी को खुश करना है। आवाज़ आई भैया गोपी को मारो गोली यहाँ पहले खुद तो खुश हो ले।
लो भैया ये फिर से दिल का मामला आ टपका। वो क्या है ना दिल के मामले में हम दखलंदाज़ी नहीं करते।  सो हमने तुरंत फ़ोन पटका और सोचा ले बेटा बलजीत बन ले आंदोलनकारी। यहाँ तो पूरा करियर ही चौपट हो गया। अब किसके सहारे रैली निकलूंगा।
लाजो की याद आने ही लगी थी कि कलम दिखाई दे गयी। सोचा यार लाजो की वजह से तो गांव छूट गया। कलम ही ठीक है। कम से कम पिट- पीटाकर  एक दिन लेखक तो बन जाऊंगा।

धन्यवाद !!

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

गर्लफ्रेंड को जुकाम हो गया है

गर्लफ्रेंड को जुकाम हो गया है।



- आज मेरी गर्लफ्रेंड साउथ कैंपस से पटेल चौक आई है मुझसे मिलने। मैंने ही कहा था उससे मिलने आने के लिए। पर मुझे कहाँ मालूम था कि उसको जुकाम हो जाएगा। देखों बड़ी सी जैकेट में कंपकपाती कैसे चुसड़ चुसड़ चाय पी रही है। अच्छा खासा प्लान बना था मूवी देखने का वो भी कैंसिल हो गया। अरे ये सिनेमा वालों को क्या जरुरत है A.C लगाने की? बड़ा चले है मॉडर्न बनने। एक दिन के लिए तो आती है दो - तीन सप्ताह में। इस बार तो पुरे २४ दिनों में आई है। कहती है एग्जाम चल रहे है। अब तुम ही बताओं पिछले २४ दिनों से कुछ भी नहीं किया है और अब है कि यहाँ बैठे चाय पी रहे है।
हरामी मनीष ने इन मौके पर ही धोखा देना था। सुबह सुबह बता रहा है कि भाई रूम नहीं मिल पाएगा कोई रिश्तेदार आ गया है। अरे ऐसी तैसी रिस्तेदार की। एक दिन पहले या बाद नहीं आ सकता था। सारा प्लान चौपट कर दिया। अगर एक दिन पहले बता देता तो मैं किसी और का रूम arrange कर लेता। उस साले मोटू अंकित ने भी मना कर दिया। भूल गया कि अपनी क्लास वाली दीप्ति से बात मैंने ही कराई थी तब तो भाई भाई करता घूमता था। आज साला गर्लफ्रेंड के प्यार में पड़कर भाई को भूल गया है। देखते है बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी। जब वो दीप्ति लात मार देगी तो आएगा मेरे पास ही लार टपकाता हुआ। वैसे भी दीप्ति ऐसे पता नहीं कितनों को उल्लू बनाए घूमती है। वो तो मुझ पर डोरे डाल रही थी वो तो मैंने ही  उसको घास नहीं डाली। और अब ये मोटू मुझे उसका ही गुरुर दिखा रहा है।

गर्लफ्रेंड - कहाँ खो गए ?

- हम्म. हम्म्म... हाँ बोल।

गर्लफ्रेंड : क्या हम्म हम्म्म। ... कब से इसी तरह गुमशुम बैठे हो ?

- नहीं वो मुझे लगा तुम्हे बोलने में दिक्कत होगी इसीलिए। वैसे भी कभी कभार साथ में चुप भी बैठना चाहिए। इससे एक दूसरे को ज्यादा observe कर पाते है।

गर्लफ्रेंड : मेरी फोटो लेकर बैठ जाया करो और जितना ओब्सेर्वे करना है किया करो। वैसे मुझे भी बात करने की कोई ख़ास इच्छा नहीं है।

- हम्म... तुम्हे इच्छा क्यों होगी ? ये सब तुम्हारा ही किया कराया है। अरे दो दिन पहले आ जाती तो कुछ बिगड़ जाता? मैं आने की कहता हूँ तो भी मैडम को दिक्कत होती है। कहती है रूममेट्स बड़ी बेकार है वो चिड़चिड़ करती है। कितनी बार कहा है  ... रूम बदल ले  ... पर ना  ... इसको तो उन बेवकूफों के साथ ही रहना है। उनका अपना तो कुछ होता नहीं दूसरों का और नहीं होने देते। मेरे घर वालों को भी पता नहीं हॉस्टल की क्या पड़ी है। बाहर रूम लेने का प्लान बना रहा था। नहीं बेटा बाहर रहेगा तो बिगड़ जाएगा। जैसे अभी तो बड़ा सुधरा हुआ है। अन्ना पर चिल्लाते हुए - अन्ना चाय में कोई इतनी चिन्नी डालता है क्या ? अरे चाय है या शरबत ? साला चाय भी ढंग की नहीं बना सकता।

गर्लफ्रेंड - क्यों इतना चिल्ला रहे हो ?

- मैं चिल्ला रहा हूँ ? लगता है जुकाम होने से तुम्हारे कानों में लाउडस्पीकर लग गए है।

गर्लफ्रेंड : कही मनीष का रूम नहीं मिलने तो फ्रस्टिया रहे हो ?

- मैं क्यों फ्रूस्टियाने लगा भला ?

गर्लफ्रेंड: तुम्हारे चेहरे से ये ही लग रहा है।

- तुम अपनी बकवास अपने पास रखों। तुम्हे इतनी सर्दी में बाहर घूमने की क्या जरुरत थी। अब गुमटी रहना नाक पकड़कर।

गर्लफ्रेंड: मैं अपना नाक पकड़कर घूमूं या ना तुम्हे क्या?

- अच्छा आज तुम्हे क्या ? परसों फोन पर क्या कह रही थी कि एक दूसरे के लिए जिएंगे और एक दूसरे के लिए मरेंगे।

गर्लफ्रेंड: जी जनाब कहा था। पर तुम्हारी सोच नाड़े के ऊपर आये तब ना।

- क्या मतलब तुम्हारा नाड़े के ऊपर ? मैं तुम्हारे पीछे पड़ा हूँ। तो छोड़ कर चली क्यों नहीं जाती ?

गर्लफ्रेंड: आ देखो मेला चुनु मनु नाराज हो गया। चल कमला गार्डन घूम कर आते है।

- पागल है क्या? मैं ना जा रहा कमला गार्डन। अरे मरवाएगी क्या ? अरे बजरंग दाल वालों ने देख लिया तो हमारी शादी करा देंगे।

गर्लफ्रेंड: अरे वाह ! फिर तो सारी टेंशन ही खत्म। घर वालों की मच - मच से भी बच जाएंगे।

-तुम पगला गई हो। चलो साउथ कैंपस चलते है वही घूम लेंगे। तुम फिर वही फिर वही से घर चली जाना।  मुझे भी साउथ कैंपस गए हुए काफी दिन हो गए है। और तुम्हारे लिए  कुछ शॉपिंग भी कर लेंगे।  

गर्लफ्रेंड: साउथ कैंपस  ..... शॉपिंग  .... वाह ! वाह! ऐसा जुकाम तो रोजाना हो। चलो आईडिया बुरा नहीं है वैसे भी यहां बैठे बैठे तुम बोर हो जाओगे।

-  चलो! चलो ! देखो बस आ गयी है। छूट जाएगी तो १५-२० मिनट वेट करना पड़ेगा।

इसको लिखने का पूरा श्रेय +Kamil Saif , +Ashtam Neelkanth को जाता है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

सड़े हुए केले और बाई

सड़े हुए केले और बाई 


एक रोज फल वाले भैया के पास खड़ा तरबूज खा रहा था कि वहां थोड़ी देर में एक महिला चमचमाती कार में आती है और भैया को कहती है - भैया चार सड़े हुए केले दे दो। मैंने तरबूज खाते - २ उसे घूरती हुई निगाहों से देखकर ignore मार दिया। भैया को शायद "सड़े हुए" शब्द सुनाई नहीं दिए और वो चार केले उठाकर देने लगे। काले चश्मों को आँखों से उतारकर सर पर लगते हुए उसने कहा अरे भैया सड़े हुए नहीं क्या ?... वो बाई को खिलने थे। भैया 'सड़े हुए' शब्द सुनकर चौंके।
मैंने भी थोड़ी उत्सुक निगाहों से देखा और उसकी नौकरी का अंदाज़ा लगाने लगा। लेखक होगी। शायद एक किताब चल गयी होगी। दूसरी कभी छपी नहीं होगी। नहीं नहीं लेखक नहीं हो सकती। एक किताब से इतनी बड़ी गाडी नहीं खरीद पाती। जरूर एक्ट्रेस होगी। शायद किसी कपूर या खान के झांसे में आ गयी होगी। उसकी तरफ मेरी निगाह थोड़ी तिरछी हो गयी। फिर लगा BMC में अधिकारी होगी। शायद बिल्डर ने पेमेंट नहीं की होगी, इसीलिए सस्ते केले खरीद रही है। ये सब ख्याल दिमाग में कुलांचे मार रहे थे कि भैया ने बड़ी मशक्कत के साथ चार सड़े हुए केले निकालकर देते हुए कहा - ये लिजीए मैडम।
मैडम ने पर्स से दस का नोट निकाला तो भैया ने तुरंत भोंहे चढ़ाकर कहा - मैडम दस रुपए में केवल तीन केले ही आते है। 
मैडम तुरंत बोली - क्या भैया ? एक तो सड़े हुए केले खरीद रही हूँ और आप मुझे ही चम्पी लगा रहे हो। पकड़ो। घर पर बाई इंतज़ार कर रही होगी। 
विचार आया - हे बाई ! तेरी खुद की कोई मजबूरी हो कि ये सड़े हुए केले भी अच्छे लगे। बिना मजबूरी के ऐसे हालातों का सामना करना बड़ा कठिन होता है। 
उसके जाने के बाद भैया ने कहा - देखो साहब ! कैसा जमाना आ गया है ? बाई को सड़े केले खिला रही है। 
हमने सिर्फ इतना कहा - भैया ! जमाना पहले भी ऐसा ही था। बस फर्क इतना है कि आज चौधराईन की इज्जत नहीं है इसलिए कुर्सी पर बिठाकर सड़े केले खिला रही है। वरना इज्जत के डर से अच्छे केले घर के बाहर बिठाकर खिलाने पड़ते।  

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

अब इसको क्या नाम दूँ


बॉलीवुड की फ़िल्में देखकर पला बढ़ा मैं सोचा करता था कि लड़कियां अंग्रेजी में प्रोपोज़ करने पर ही हाँ करती है। हालांकि चेतन  भगत आज भी यही सोचता है। मिथ के इसी अहसास में डूबकर दर्जनों लड़कियों को अंग्रेजी में प्रोपोज़ कर डाला। और लड़कियों ने "i don't know you' का थपेड़ा मुंह पर मारा। इन दर्जनों लड़कियों के प्यार में अभी इतना ही अँधा हुआ था कि आँखों पर ६ नंबर का चश्मा चढ़ गया था। प्यार का तालाब धीरें धीरें सूख रहा था कि एक दिन कैंटीन में बैठे चाय पीते हुए कामिल ने कहा - अरे बल्ली ! देख वो लड़की तुझे देख रही है। नाराजगी से घिरे मन से कहा - देखने दे। मुझे फर्क नहीं पड़ता। पर कामिल के दो तीन बार कहने पर लड़की को चुपके से तिरछी निग़ाहों से देख लिया। पता नहीं क्यों चश्मों से चौंधयाती नज़रों से हमेशा लगता कि हर लड़की सिर्फ मुझे ही देख रही है। ..और इस बार भी ऐसा ही लगा। दिल के सूखे तालाब में प्यार के बुलबुले फूटने लगे  और पूरी अकड़ के साथ दोस्त से कहा - अगर वापस जातें हुए देखेगी तो समझना जरूर हमारी दीवानी है। साल ओवर कॉन्फिडेंस भी हद का था।

भई लड़की ने वापस जाते हुए सच में हमें मुस्कराती निगाह से देखा और ये बल्ली तो दीवाना हो गया। देखने दिखाने के सिलसिले में चश्मों का नंबर बढ़ने लगा तो उसकी आड में लड़की भी दिन - ब - दिन सुन्दर नज़र आने लगी। अब बारी आई लड़की से बात करने की। तो वही अंग्रेजी के ख्याल दिमाग में दौड़ने लगे। बोले तो कैसे बोले ? लड़की हिंदी में मानेगी नहीं और अंग्रेजी हमको आती नहीं। एक ओर अंग्रेजी सीखने के चक्कर में दिन रात हॉलीवुड की फ़िल्में देखने लगा तो वही दो तीन घंटे शीशे के सामने खड़ा कुछ बड़बड़ाता रहता। खैर जो भी था। बात लड़की को प्रोपोज करने की थी तो अंग्रेजी की दो चार लाईने अच्छे से रट ली। हॉस्टल के दोस्तों के मनोबल के सहारे लड़की को मिलने चला। लड़की अपने दोस्तों के साथ झुण्ड में बैठी हुई थी। पास जाकर बोला excuse me . Can I talk to you ?

लड़की सकपकाई सी खड़ी हुई और बोली - yes ! go on .
झुण्ड के बाकी बच्चों की तरफ देखा तो सोचा यार अगर मना कर देगी तो दूसरे कोर्स वालों के सामने बेइज्जती हो जाएगी। पर क्या करता इसके लिए अंग्रेजी की कोई लाइन तैयार नहीं की थी। आख़िरकार दिल पर पत्थर रखकर बोला - in private. लड़की ने ओके कहा और थोड़ी दूर जाकर खड़े हो गए।
सांस अंदर खींच कर पुरे जोश के साथ के कहा - I like you . यार वो I love you नहीं बोल सकते। हरयाणवी जो ठहरे।

उतने ही जोश के साथ जवाब आया - but I don't even know you .
जानता था यही लाइन सुनने को मिलेंगी। आखिर इस काम में महारत जो हासिल थी।  सो तुरंत कहा -
I am Baljeet and you are Shagun . I am studying in GL and you are in mental health . see we know each other.

उसने कहा - you can't know anyone just by knowing her name and course.

अब साला जब भी ये "I don't know you" सुनते तो पुरे शरीर में बिजली कोंधियां जाती। दिमाग तो बस बंद सा हो जाता। फिर भी कुछ देर की चुप्पी के बाद कहा - क्या ये "I don't know you" लगा रखा है। अरे रोज तो टुकर टुकर देखा करती थी।

लड़की - excuse me . look mister . I don't even know that you are in my college .

ये सुनकर गुस्सा नहीं आया क्योंकि जानता था कि प्यार के मामले में हम हरियाणा वाले थोड़ा धोखा खा जाते है। चश्मा उतरा।  देखा तो शीशा काफी मोटा हो गया था।  इतना कि सुन्दर लड़की भी धुंधली नजर आ रही थी। चश्मा लगाया। गर्दन झुकाई और सॉरी बोलते हुए वापस आ गया।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

देशभक्ति का बाजार

देशभक्ति का बाजार

आओं आओं लूट लो
देशभक्ति का बाजार लगा है।
खरीददारों का तो पता नहीं
पर बेचने वालो का हुजूम उमड़ पड़ा है। 


भगवा रंग के पैकट में
हिंदुत्व कंपनी के ठप्पे पे
खूब बिक रही है। देशभक्ति।

पहने टोपी और खादी चड्डी
हाथ में लाठी लिए नागपुर वाले
लाला बेच रहा है। देशभक्ति।

बाबाजी के आश्रम की
गौमाता के मूत्र से पवित्र हुई
एकदम शुद्ध शाकाहारी है। देशभक्ति।

आजकल तो काले कोट वाले भी
गद्दी वाले काका के आशीर्वाद से
बेचने लगे है। देशभक्ति।

आओं आओं लूट लो
देशभक्ति का बाजार लगा है

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

बिन ब्याहा बाप बना दिया

कल शाम यूं ही इंटरनेट पर ताकझाक करते हुए एक हास्यकविता देखी. बड़ी मजेदार और जानदार मालूम होती थी. सोचा हास्य कविता को आपके साथ सांझा करूं लेकिन इसके मूल लेखक का नाम नहीं जानता इसलिए जनाब जिसकी भी हो मेरी तरफ से आभार प्रसन्नता से स्वीकार कर ले.

हिन्दी हास्य कविताएं: बाप बना दिया


कई दिनों बाद किसी का फोन आया।
मै बना रहा था सब्जी, उसे छोड़कर उठाया।

उधर से एक पतली सी आवाज आयी हैलो नरेश!
मैंने कहा सॉरी हियर इज मुकेश!

उसने कहा! क्यों बेवकूफ बना रहे हो।
मुझे सब पता है तुम नरेश ही बोल रहे हो।।

मै थोडा गुस्से में बोला! तुम हो कैसी बला।।
मै कैसे तुम्हे समझाऊँ। मुकेश हूँ नरेश को कहाँ से लाऊं।।

उसको मेरी बातों से, हुआ कुछ खटका।
उसने बड़े जोर से, रिसीवर को पटका।।

तब मुझको किचन से, कुछ बदबू सी आयी।

राँग नम्बर के चक्कर में, मैंने सब्जी जलवायी।।

दूसरे दिन फिर, उसका फोन आया।
मै बाथरूम से भागा, दीवार से टकराया।

सिर के बल गिरा, नाक से खून आया।।
फिर भी गिरते पड़ते, फोन उठाया।।

फिर वही आवाज, आयी हैलो नरेश।
मै खीझकर चिल्लाया! नहीं उसका बाप मुकेश।।

उसने कहा अंकल नमस्ते! मैंने भी आशीष दिया-
खुश रह आज तो मै, बच गया मरते मरते।।

वो थोड़ा शरमाई, फिर गिड़गिड़ायी-

अंकल नरेश से बात करा दो, मै पूनम बोल रही हूँ।
मैंने जवाब दिया-
नरेश तो सुबह ही मर गया, अभी दफना कर आ रहा हूँ।।

उसको हुआ कुछ शक। उसने कहा बक॥

अभी कल ही तो दिखा था।
मैंने आह भरी! इतनी जल्दी मरेगा,

क्या मुझको ये पता था।।

आवाज आयी अच्छा अतुल का नम्बर बता दो।
मै रोया! मेरा बेटा मरा है, कम से कम झूठी तसल्ली तो दे दो।।

उसको मेरी बातों में दिखी सच्चाई।
तब उसने अपनी गाथा सुनाई।।
अंकल मुझे आपका दर्द पता है।
पर इसमें मेरी क्या खता है।।

वो था ही इतना कमीना।

बेकार था उसका जीना।।

आपको क्या पता उसने मेरे साथ क्या किया था।
इंडिया गेट पर ही मेरा चुम्मा ले लिया था।।
इसके अलावा भी उसने मुझको ठगा था।
लालकिले पे मेरा पर्स ले भगा था।।
उसकी इस हरकत पर मेरे डैडी ने डांटा।
तो उसने मेरे बाप को भी जड़ दिया चांटा।।

और क्या बताऊँ मै उसकी करतूत।
अच्छा हुआ मर गया आपका कपूत।।

लेकिन मै उसे अब भी नहीं छोडूंगी।
स्वर्ग तो जायेगा नहीं नरक तक खदेड़ूगी।।

मैंने  उसको समझाया।

दो चार अवधी बातों का जाम पिलाया।।

और कहा! छोडो भी ये गुस्सा।
खत्म हुआ नरेश का किस्सा।।
मै उससे हूँ शर्मिंदा।

शायद तुम्हारे लिए हूँ जिन्दा।।
मुझसे शादी करोगी? सच कह रहा हूँ
पैर भी दबाऊंगा अगर तुम कहोगी।।

वो गुर्रायी! चुप बुड्ढे, कुछ तो शरम कर।
भगवान से नहीं, मुझसे तो डर।।

तुझे क्या पता मै कितनी खूंखार हूँ।

कलयुग में पूतना का दूसरा अवतार हूँ।।

मै तो अभी तेरे बेटे को ही नहीं छोडूंगी।
तूने कैसे सोचा मै तुझसे रिश्ता जोडूंगी।।

अरे तू! इस धरती पर अभिशाप है।
नरेश तो ठग ही था, तू तो उसका भी बाप है।।
उस  दिन  ही  मैंने,  वो फोन कटा दिया।
पर उसने बिन ब्याहा, बाप मुझे बना दिया॥

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

मौन

मौन
श्रदांजलि है
आदर है
समर्पण है
इसलिए मौन हो जाते है हम .

मौन
क्रोध है
अस्थिर है
शोषण है
भयावह है मौन
इसलिए मौन हो जाते है हम

मौन
मृत्यु है, शिथिलता है .
एक अविरोध समर्थन है
इसलिए मौन नहीं होना चाहता मेरा मन .

  • शक्ति द्विवेदी

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

ख्वाबोँ का सफ़र - एक आत्मकथा

बलजीत यादव के ख्वाबोँ की दुनिया का सफ़र तब शुरू हुआ जब वो अपनी भैसों को खेतों में चराने ले जाया करता। डंडी लिए हुए भैसों को इधर उधर हांकता बलजीत बोरियत से बचने के लिए धीरे - धीरे ख्वाबों की एक दुनिया बुनने लगा। और घर पर बड़े भाई की चिल्लाहट ने उन ख्वाबों को पर लगा दिए। जब भी वो भाई की डांट सुनता तो, अपने ख़्वाबों के संसार में जा उड़ता जो उसे कभी जंगलों की सैर कराते तो कभी रेगिस्तान की। सोचता था जंगल में भाग जाएगा और वो वही पेड़ों पर सोएगा। बाहरी चमचमाती दुनिया से कटा हुआ बलजीत सोचता कि वो जंगल में फलों के सहारे जी लेगा और पेड़, पशु और पंछियों से दोस्ती कर लेगा।
कक्षा में सबसे पीछे बैठने वाला बलजीत नजर कम होने की वजह से धीरे - धीरे आगे आने लगा और फिर सब बच्चों से आगे बोर्ड के बिलकुल पास बैठने लगा। उसके बावजूद बोर्ड पर अक्षर दिखाई न पड़ने के कारण वो साथी बच्चों की कॉपियां मांगकर घर लाने लगा। एक दिन बलजीत के पापा ने देखा कि वो दूसरे बच्चों की कॉपियां घर लाता है तो इसका कारण पूछ बैठे। और दूसरे ही दिन जनाब को गावं में सबसे कम उम्र में चश्मे लगाने का गौरव प्राप्त हो गया। जिससे गावं वालों को बलजीत के रूप में एक नया हास्य पात्र मिल गया। उसे दिनभर लोगों को जवाब देना पड़ता कि उसको इतनी कम उम्र में चश्मे क्यों लग गए ? उनको कोसते हुए बेचारा सोचता कि इन कम्बख्तों को क्या जवाब दिया जाए और मन मारकर चुप हो जाता।
चश्मों का नंबर दिन - ब - दिन बढ़ते गया। जिससे खेल का मैदान भी बलजीत के लिए मुश्किलें बढ़ाने लगा। लेकिन अब बलजीत के ख्वाबी पुलाव अच्छी तरह पकने लगे थे। वो रोज नयी-नयी कहानियां बनाता और अपनी माँ को सुनाता। दोनों माँ बेटे खूब देर तक खिलखिलाकर हँसते। दसवीं में अच्छे नंबर से पास होने पर समाज ने होशियार घोषित कर दिया। अब एक होशियार लड़का कला और वाणिज्य जैसे विषय कैसे ले सकता था ?
बारहवीं के बाद कॉलेज में एडमिशन के सिलसिले ने बलजीत के लिए एक और दुविधा खड़ी कर दी। इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने से मना करने पर चारों तरफ से तरह तरह के ताने पड़ने लगे। पर आख़िरकार काम आया वो गुस्सैल बड़ा भाई और उसकी मदद से दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में रसायन विज्ञान पढ़ने चला गया और दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला गावं का पहला बंदा बना। कॉलेज की दुनिया बिलकुल अलग थी लेकिन गावं की दुनिया से कहीं ज्यादा मजेदार। यहाँ उस पर ताने मारने वाला कोई नहीं था। भाईसाहब को ज्यों हि आज़ादी की खुली हवा मिली, राजनीतिक से लेकर सामाजिक, हर तरह की गतिविधयों में हाथ आजमाने कूद पड़े। वो खुद चाहे क्लास में न जाता परन्तु शाम में कॉलेज के "न.स.स पढ़ाकू" में आसपास के मोहल्लों से आये बच्चों को जरूर पढ़ाता।
जनाब को दुनियादारी को, और अच्छी तरह जानने का फितूर चढ़ा और पहुंचे बिहार, वो भी कोसी नदी के किनारे, एक सुदूर गावं में। कहते है वहां उसके जीवन को एक नई दिशा मिली और पहुँच गए मुम्बई नगरी के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में श्रम अध्ययन के लिए। सामाजिक विज्ञान के नए माहौल ने बचपन के अनुभव और कॉलेज के ज्ञान को विस्तृत रूप देकर बलजीत को हक़ के लिए संघर्ष करने वालों के साथ खड़ा कर दिया। एक्टिविज्म के सफर में ख्वाब बुनने की शक्ति, नारे लिखने और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने में काम तो आई ही साथ में बलजीत को लेखन प्रतिभा से भी सामना करा गई।
बस फिर क्या था साहब निकल पड़े अपनी प्रतिभा को निखारने और हाथ में जो भी आया पढ़ने लगा और कुछ कहानियां भी लिख डाली। जब साथियों ने दोस्ती के दबाव में आकर तारीफ कर दी तो सीधा अपनी ख्वाबों की दुनिया के सातवें आसमान पर बैठ गया। पढ़ने का और लेखन का खुमार इतना चढ़ा कि नौकरी से इस्तीफा देकर आज एक लाइब्रेरी में बैठे पढता रहता है। सुना है, कभी लेखक बनने का ख्वाब देखता है तो कभी स्क्रिप्ट राइटर बनने का। एक दिन तो ख्वाब देख रहा था कि गुलज़ार साहब उसे अवार्ड दे रहे है। गुलज़ार साहब के सामने क्या डायलाग मारा -" सर आपके चरण स्पर्श हो गए बस यही तमन्ना थी। ऐसा लगता है कि दुनिया की सारी खुशियां सिमटकर मेरे क़दमों में आ गिरी है।"
खबर मिली है कि AIB लेखकों के लिए कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने वाला है। शायद तभी हमारा ख्वाबों का राजा आजकल इतना खुश है। कल ही अपने रूममेट को बोल रहा था कि कमाएगा तो सिर्फ लेखन से। (मनोज बाजपेयी का इंटरव्यू देखा होगा ना इसलिए ) वो देखों गाना भी गुनगुना रहा है तो रामु तो दीवाना फिल्म का (1980)।
" ख्वाबों की दुनिया
सितारों की दुनिया
दूर भी है पर दूर नहीं
उझड़े फ़िज़ा के
चमन से कह दो
रंगीन बहार अब दूर नहीं
ख्वाबों की दुनिया ".....

अरे भई AIB वालों ले जाओ इसे । खुद पागल हो या न हो पर हमें जरूर कर देगा।

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

फरहान का प्यार

 फरहान का प्यार


चाय की टपरी। चार पांच कुर्सिया। एक  मेज़। दो लड़के २४ -२५ साल के चाय लिए हुए आते है।
सलीम : ( आह की आवाज़ के साथ कुर्सी पर आराम करने की स्टाइल में बैठते हुए) हाँ भाई अब बता अपनी स्टोरी। लड़की का क्या नाम बता रहा था तू ?

फरहान : मीता।

सलीम : मीता। वो Social Enterpreneurship वाली ? (थोड़ी ऊँची आवाज़ में ) वाह भाई की choice तो गजब है। 

फरहान : (हसते हुए ) हाँ लड़की ठीक है।

सलीम : तो कब से चल रहा है अपने हीरो का प्यार का चक्कर ?

फरहान : बस दो महीनों से।

सलीम : (चौंकते हुए ) दो महीनो से और हमें हवा भी नहीं लगने दी। 

फरहान : अरे नहीं ! सोचा जब बात पूरी बन जाए तब ही बताऊ। ये बात सबसे पहले तुझे ही बता रहा हूँ अभी किसी को नहीं पता ये बात। 

सलीम: रहने दे साले। प्यार के आते ही हम तो पराये हो गए। आजकल तो हम तेरे दर्शन को भी तरसते है। 

फरहान : अरे नहीं। (हलकी मुस्कराहट के साथ ) कोई प्यार वियार नहीं है।

सलीम : (बात काटते हुए ) आए हाय। चेहरा तो देखो देखो जनाब का। अरे भैया ख़ुशी की लाली टपक रही है आपके चेहरे से। 

फरहान : (हंसी को रोकने के अंदाज़ में नीचे देखते हुए ) कुछ भी। लगता है सुबह से तुझे कोई बकरा नहीं मिला हलाल करने के लिए। जो मेरी ही लेने पे तुला हुआ है। 

सलीम : (हँसते हुए ) चल छोड़ ये बता तेरी उससे दोस्ती कैसे हुई ?

फरहान : अरे वो गौरव के बर्थडे पर उसके घर पार्टी थी।  पहली बार वही मिली थी। उस दिन थोड़ी बातें हुई। कुछ ज्यादा ही इंटरेस्ट दिखाया उसने मुझमे। पर मैंने ज्यादा भाव नहीं दिए।

सलीम : वाह मेरे शेर !

फरहान : अरे सही में उस वक़्त मैं जानवी के साथ था ना। 

सलीम : तो भाईसाहब ये जानवी से मीता पर आपका ह्रदय परिवर्तन कैसे हुआ ?

फरहान : गौरव की पार्टी के बाद हम लोग कैंपस में दो चार बार मिले। चाय वाय पी साथ में। 

सलीम: और हमारे राजकुमार को प्यार हो गया। 

फरहान : हाहाहा। हाँ कुछ ऐसा ही। 

सलीम : यार तू तो बॉलीवुड के हीरो से भी फ़ास्ट निकला प्यार करने के मामले में। मतलब किसी लड़की ने बात करनी चालू की नहीं कि भाईसाहब को डायरेक्ट प्यार।

फरहान : नहीं नहीं।  वो ही स्टार्टिंग से कुछ ज्यादा ही इंटेरेस्ट दिखा रही थी। 

सलीम : पर उसका तो कॉलेज में कोई बॉयफ्रेंड था ना ?

फरहान : हाँ।

salim : अबे ! फिर तू अपनी वहां कटवाने क्यों चला गया ?

फरहान : उसके साथ अच्छा नहीं चल रहा। वो distance रिलेशनशिप है ना। 

सलीम: भाई सुन। एक फ्री की एडवाइस देता हूँ।  ये बॉयफ्रेंड वाली लड़कियों से ना थोड़ा बच कर ही रहना। पता नहीं कब इनका पुराना प्यार जाग जाए और तेरे जैसे बेचारे का फालतू में चुतिया कट जाए। 

फरहान : यार ऐसी कोई बात नहीं है। तू मुझे जानता ही है। आजतक पड़ा हूँ कभी ऐसे मामले में ? पर यार इस लड़की की बात ही कुछ और है। जब वो बातें करते करते अपनी मोटी मोटी आँखें  nikalkar dekhti है ना तो कसम से  ..... पूछ  मत। 

सलीम मुंह पर ऊँगली रखे हुए है और गर्दन हिलाता है। 

फरहान : अब ये बता तेरा भाई क्या करे ?

सलीम : ( बंद मुंह से ) हु की आवाज़ निकालता है। 

फरहान : ( गुस्से से ) मैं उठकर जाऊं ? अबे साले तुझे किसलिए लाया हूँ मैं यहाँ ? एक तो फ्री की चाय पी गया। 

सलीम : यार मैं सुन तो रहा हूँ। 

फरहान : ज्यादा नौटंकी की तो मैं चला जाऊंगा।

सलीम : अच्छा बाबा ठीक है। एक काम कर तू जाकर उसको बोल दे कि तू उसका आशिक़ बन गया है।

फरहान - पर अगर उसने मना कर दिया तो ?

सलीम : (एकदम सीरियस अंदाज़ में ) तो मत बोल।

फरहान : थोड़ा सोचकर।  बोल ही देता हूँ। देखा जाएगा जो भी होगा।

सलीम : अरे बोल दे।  बोल दे। हाँ कर ही देगी। यार तेरे जैसे स्मार्ट बन्दे को हाँ नहीं करेगी तो किसको करेगी ? वैसे भी बड़े अच्छे लगते हो साथ में।

फरहान :   ले ले। साले अच्छे से ले ले। 

सलीम : अरे नहीं यार सच बोल रहा हूँ। चल तुझे प्यार हुआ है इस ख़ुशी में मेरी तरफ से हॉटस्पॉट में पार्टी।  

फरहान : हाँ चल। वैसे भी हाँ करे या ना करे अपनी ओल्ड मोंक तो है ही अपने साथ।

सरकारी स्कूल अच्छे है ।

यह गाँव का आँगन है ।  ज्ञान का प्रांगण है ।  यहाँ मेलजोल है ।  लोगों का तालमेल है ।  बिना मोल है फिर भी अनमोल है ।  इधर-उधर भागता बचपन है । ...